लोगों की राय

कहानी संग्रह >> हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

14 पाठक हैं

प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


अधीन तेली मुहल्ले का एक प्रसिद्ध रईस था। उसके पास लोग दो लाख संपत्ति का अनुमान करते थे। अपनी जाति के मदार-वृत्तों में एरंड द्रुम था। उसने न जाने कितनी तेलियों का मांस-मदिरा छुड़ाकर उन्हें कंठी पहनवा दी। मदार और सैयद बाबा की मनौती के स्थान पर महावीर और बजंरगबली की अर्चना आरम्भ हो गयी। तेलियाने भर में अधीन की बड़ी धाक थी। वह बड़ा उदार था, बड़ा पटु था। बड़े-बड़े लोगों से उसका मेल था। उसकी मृत्यु को अभी दो वर्ष भी न हुए थे। उसका वृद्ध सेवक रजना मेरे यहाँ आया-जाया करता था, इस बार रजना आया, तो मैंने झुरही का हाल पूछा।

‘बाबू जी, आपको नहीं मालूम क्या?’ –रजना ने कहा–‘बेचारी को दु:ख ही मिला।’

मैंने फिर उत्सुकता से कहा–‘भाई, मुझे पूरा-पूरा हाल बताओ।’ बोला–‘निरते में सुनना बाबू जू, मैं अभी एक घंटे में आऊँगा!’

मैं बड़ी अधीरता से रजना की राह देखता था। झुरही के संबंध में न जाने कितने काल्पनिक चित्र मेरी आँखों के सामने नाचने लगे। उसकी फटी धोती, उसका कुंकम, उसका फूट शीशा, उसका हाथ फैलाकर नरही में भिक्षा माँगना। युवावस्था के उसके रूप और लावण्य की कल्पना मूर्तिमान हुई। सुंदर साड़ी में झिलमिलाती हुई ज्योति भी मेंरी आँखों में भासित होने लगी। इतने में रजना आ गया।

‘कहो, बाबू, बैठे हो!’

‘हाँ भाई, सुनाओ। बड़ी अधीरता है।’ रजना टाट पर बैठ गया। तमाखू पर दो हाथ फटाफट मारकर रजना ने कथा आरम्भ की। लगभग एक घंटे में उसने सारी कथा समाप्त कर दी। मेरे चित्त में विचित्र कुतूहल था, सहानुभूति थी, करुणा थी और झुरही के लिए असीम अनुकम्पा थी। तीन दिन के पश्चात् मुझे लखनऊ जाने का अवसर फिर मिला। मैंने झुरही का बहुत अन्वेषण किया परन्तु कोई निश्चित पता न लगा। एक दिन ताँगे पर मैं गणेशगंज जा रहा था कि एक पतली औरत दौड़ती हुई दिखायी दी। कई बालक उसके पीछे थे। मैंने सकही को पहचान लिया और बुलाया। वह रुकी और कुछ बड़बड़ाती हुई बैठ गयी। मुझे वह बिल्कुल न पहचान सकी। उसके विचार-विधान के तंतु किसी विशेष झटके से उलझ गये थे। वह बीच सड़क पर बैठ गयी। धीरे से सिंदूर की डिबिया निकाली। फूटा शीशा लेकर तर्जनी से एक बिन्दु अपनी दो मोटी-मोटी भौहों के बीच में रखा और झट से डिबिया छिपाकर भागी। मैंने ताँगे को छोड़ दिया और झुरही के पीछे चल दिया। थोड़ी देर में वह एक अत्यन्त प्राचीन विशाल महल के गिरे हुए एक कोठे में घुस गयी। वह किसी धनी का किसी समय का विशाल प्रासाद था, जो चमगादड़ों और कपोतों के लिए रिक्त कर दिया गया था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book