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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


खाँ साहब रूपा के रूप की तरह चुपचाप गिलौरियों के रस का घूँट पीन लगे। थोड़ी देर में एक अँधेड़ मुसलमान अमीरजादे की शकल में आये। उन्हें देखते ही रूपा ने कहा–‘ अरे हुजूर तशरीफ ला रहे हैं। मेरे सरकार, आप तो ईद के चाँद हो गये। कहिए, खैराफ़ियत है? अरी, मिर्ज़ा साहब को गिलौरियाँ दीं?’ तश्तरी में खनाखन हो रही थी और रूपा की रूप और पान की हाट खूब गरमा रही थी। ज्यों-ज्यों अंधकार बढ़ता जाता था, त्यों-त्यों रूप पर रूपा की दुपहरी चढ़ रही थी। धीरे-धीरे एक पहर रात बीत गयी। ग्राहकों की भीड़ कुछ कम हुई। रूपा अब सिर्फ कुछ चुने हुए प्रेमी ग्राहकों से घुल-घुलाकर बातें कर रही थी। धीरे-घीरे एक अजनबी आदमी दूकान पर आकर खड़ा हो गया।

रूपा ने अप्रतिभ होकर पूछा–‘आपको क्या चाहिए?’

‘आप के पास क्या-क्या मिलता है?’

‘बहुत-सी चीजें। क्या पान खाइएगा?’

‘क्या हर्ज है?’

रूपा के संकेत से दासी बालिका ने पान की तश्तरी अजनबी के आगे धर दी।

दो बीड़ियाँ हाथ में लेते हुए उसने कहा–‘इनकी कीमत क्या है बी साहबा!’

‘जो कुछ जनाब दे सकें।’

‘यह बात है! तब ठीक, जो कुछ मैं ले सका, वह लूँगा भी!’ अजनबी हँसा नहीं। उसने भेद भरी दृष्टि से रूपा को देखा।

रूपा की भृकुटी जरा टेढ़ी पड़ी और वह एक बार तीव्र दृष्टि से देखकर फिर अपने मित्रों के साथ बातचीत में लग गयी! पर बातचीत का रंग जमा नहीं। धीरे-धीरे मित्रगण उठ गये। रूपा ने एकांत पाकर कहा– ‘क्या हुजूर का मुझसे कोई खास काम है?’

‘मेरा तो नहीं, मगर कम्पनी बहादुर का है।’

रूपा काँप उठी। वह बोली–‘कम्पनी बहादुर का क्या हुक्म है?’

‘भीतर चलो कहा जाय।’

‘मगर माफ कीजिए– आप पर यकीन कैसे हो?’

‘ओह! समझ गया। बड़े साहब की यह चीज तो तुम शायद पहचानती ही होगी?’

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