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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


द्वार पर कभी-कभी साधु-संत धूनी रमाये हुए दीख पड़ते थे। स्वयं भगवद्गीता और विष्णुपुराण पढ़ते। पारलौकिक चिंता अब नित्य रहने लगी। परमात्मा की कृपा और साधु-संतों के आशीर्वाद से बुढ़ापे में उनके एक लड़का पैदा हुआ। जीवन की आशाएँ सफल हुईं। दुर्भाग्यवश पुत्र के जन्म ही से कुँवर साहब शारीरिक व्याधियों से ग्रस्त रहने लगे। सदा वैद्यों और डाक्टरों का तांता लगा रहता था लेकिन दवाओं का उलटा प्रभाव पड़ता।

ज्यों-त्यों करके उन्होंने ढाई वर्ष बिताये। अंत में उनकी शक्तियों ने जवाब दे दिया। उन्हें मालूम हो गया कि अब संसार से नाता टूट जायगा। अब चिंता ने और धर दबाया–यह सारा माल-असबाब, इतनी बड़ी सम्पति किस पर छोड़ जाऊँ? मन की इच्छाएँ मन ही मन में रह गयीं। लड़के का विवाह भी न देख सका। उसकी तोतली बातें सुनने का भी सौभाग्य न हुआ। हाय अब इस कलेजे के टुकड़े को किसे सौंपू, जो इसे अपना पुत्र समझे। उससे कारबार सँभलना कठिन है। मुख्तार आम, गुमाश्ते, कारिंदे कितने हैं, परंतु सबके सब स्वार्थी, विश्वासघाती। एक भी पुरुष नहीं जिस पर मेरा विश्वास जमे। कोर्ट आफ वार्ड्स के सुपुर्द करूँ तो वहाँ भी ये ही सब आपत्तियाँ। कोई इधर दबायेगा, कोई उधर। अनाथ बालक को कौन पूछेगा? हाय मैंने आदमी नहीं पहचाना मुझे हीरा मिल गया था, मैंने उसे ठीकरा समझा! कैसा सच्चा, कैसा वीर, दृढ़-प्रतिज्ञ पुरुष था। यदि वह कहीं मिल जावे तो इस अनाथ बालक के दिन फिर जायँ। उसके हृदय में करुणा है, दया है। वह एक अनाथ बालक पर तरस खायगा। हाँ! क्या मुझे उसके दर्शन मिलेंगे! मैं उस देवता के चरण धोकर माथे पर चढ़ाता। आँसुओं से उनके चरण धोता। वही यदि हाथ लगायें तो यह मेरी डूबती हुई नाव पार लगे।

ठाकुर साहब की दशा दिन-दिन बिगड़ती गयी। अब अन्तकाल आ पहुँचा। उन्हें पंडित दुर्गानाथ की रट लगी हुई थी। बच्चे का मुँह देखते और कलेजे से एक आह निकल जाती। बार-बार पछताते और हाथ मलते। हाय! उस देवता को कहाँ पाऊँ। जो कोई उसके दर्शन करा दे, आधी जायदाद उसको न्योछावर कर दूँ। प्यारे पंडित, मेरे अपराध क्षमा करो। मैं अंधा था, अज्ञानी था। अब मेरी बाँह पकड़ो। मुझे डूबने से बचाओ। इस अनाथ बालक पर तरस खाओ। हितार्थी और संबंधियों का समूह सामने खड़ा था। कुँवर साहब ने अधखुली आँखों से उनकी ओर देखा। सच्चा हितैषी कहीं देख न पड़ा। सबके चेहरे पर स्वार्थ की झलक थी। निराशा से आँखें मूँद लीं। उनकी स्त्री फूट-फूटकर रो रही थी। निदान उसे लज्जा त्यागनी पड़ी। वह रोती हुई पास जाकर बोली। प्राणनाथ मुझे और इस असहाय बालक को किस पर छोड़ जाते हो? कुँवर साहब ने धीरे से कहा–पंडित दुर्गानाथ पर। वे जल्द आवेंगे। उनसे कह देना कि मैंने सब कुछ उनकी भेंट कर दिया है। यह मेरी अंतिम वसीयत है।

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