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होरी (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8476
आईएसबीएन :978-1-61301-161

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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है


धनिया— (तेज होकर) तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान ने क्यों रचा। तुम्हारे साथ जिन्दगी तलख हो गई। उठा कर सारे रुपये बहनोइयों को दे दिये। अब गोई कहाँ से आयगी? हल में क्या तुम मुझे जोतोगे? या आप जुतोगे?

होरी— जो होगा देखा जायगा।

धनिया— कैसे देखा जायगा। पूस की ठण्ड है और किसी के देह पर लत्ता नहीं, ले जाओ सबको नदी में डुबो दो। कब तक पुआल में घुस कर रात काटेंगे और पुआल में घुस भी लें तो पुआल खाकर रहा तो न जायगा।

होरी— (सिर झुकाये) मजूरी तो मिलेगी। मजूरी करके खायेंगे।

धनिया— कहाँ है इस गाँव में मजूरी? और कौन मुँह लेकर मजूरी करोगे? महतो नहीं कहलाते !

होरी— (चिलम के कश लगाता हुआ) मजूरी करना कोई पाप नहीं है। मजूर बन जाय तो किसान हो जाता है। किसान बिगड़ जाय तो मजूर हो जाता है। मजूरी करना भाग्य में न होता तो यह सब विपत क्यों आती। क्यों गाय मरती, क्यों लड़का नालायक...

धनिया— (एकदम सबसे) तुम सब-की-सब घेरे क्यों खड़ी हो ! वह और हैं जो हाट-बाजार से आते हैं, तो बाल-बच्चों के लिए दो चार पैसे की कोई चीज लिये आते हैं। इसी कमाई में बरकत नहीं होती। जो खरच करते हैं, उन्हें, मिलता है। जो न खा सकें, न पहन सकें उन्हें रुपये ही क्यों? जमीन में गाड़ने के लिए?

[सब जाती हैं]

होरी— (खिलखिला कर) कहाँ है वह गड़ी हुई थैली !

धनिया— जहाँ रखी है वहीं होगी ! चार पैसे की कोई चीज लाकर बच्चों के हाथ पर रख देते तो पानी में पड़ जाते। झिंगुरी से तुम कह देते कि एक रुपया मुझे दे दो, नहीं तो एक पैसा न दूँगा, जाकर अदालत में लेना तो वह जरूर दे देता। (जाती है)

होरी— (लजाकर) हाँ, यह तो चूक हो गयी। बहुत होता बकाया पर दो चार आना सूद ले लेते। मगर अब तो चूक हो ही गयी। अच्छा (शंख बजता है) ओहो ठाकुर ध्यानसिंह की कथा पूरी हो गयी। आरती हो रही है। जाना चाहिए पर पास में एक पैसा भी नहीं। खाली हाथ आरती कैसै लूँगा। सबकी आँखों में हेठा कैसे बनूँगा। मर्यादा कैसे तोडूँगा। अन्दर की ओर जाता है लेकिन दूसरे ही क्षण लौटता है) नहीं, मैं मर्यादा की गुलामी क्यों करूँ ! मर्यादा के पीछे आरती का पुण्य क्यों छोड़ूँ। लोग हँसेंगे हँस लें। परवा नहीं। भगवान कुकर्म से बचाये रखे, मैं कुछ और नहीं चाहता।

(दृढ़ता से बाहर जाता है। परदा गिरता है।)

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