नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
चौथा दृश्य
[वही स्थान। परदा उठने पर कई व्यक्ति होरी को उठाये लाते हैं। धनिया, रूपा, सोना, झुनिया सब रोती हुई साथ आती हैं। धनिया खाट लाकर बिछाती है–रोती है।]
धनिया— अरी सोना, दौड़ कर पानी ला और जाकर सोभा से कह दे, दादा बेहाल हैं। हाय भगवान् अब मैं कहाँ जाऊँ।...अब मैं किसकी होकर रहूँगी, कौन मुझे धनिया कहकर पुकारेगा !
पटेश्वरी— क्या करती है धनिया, होश संभाल। होरी को कुछ नहीं हुआ गर्मी से अचेत हो गये हैं। अभी होश आया जाता है।
धनिया— क्या करूँ लाला, जी नहीं मानता। भगवान ने सबकुछ हर लिया। मैं सबर कर गयी। अब सबर नहीं होता। हाय रे मेरा हीरा।
[सोना पानी लाती है। लाला छींटे देते हैं। धनिया व बेटियाँ हवा करती हैं। होरी आँखें खोल कर उड़ती नज़र से ताकता है। धनिया विह्वल होकर लिपट-सी जाती है।]
धनिया— अब कैसा जी है तुम्हारा? मेरे तो परान नहों में समा गये थे।
होरी— (कातर स्वर) अच्छा हूँ। न जाने कैसा जी हो गया था !
धनिया— (सस्नेह-ताड़ना) देह में दम तो है नहीं, काम करते हो जान देकर। बच्चों का भाग था नहीं तो तुम तो ले ही डूबे थे।
पटेश्वरी— (हँस कर) धनिया तो रो-पीट रही थी।
होरी— सचमुच तू रोती थी धनिया?
धनिया— इन्हें बकने दो तुम। पूछो यह क्यों कागद छोड़ कर घर से दौड़े आये थे?
पटेश्वरी— (चिढ़ा कर) तुम्हें हीरा; हीरा कह कर रोती थी। अब लाज के मारे मुकरती है। छाती पीट रही थी।
होरी— (करुण स्वर) पगली है और क्या? अब न जाने कौन-सा सुख देखने के लिए मुझे जिलाये रखना चाहती है !
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