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होरी (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8476
आईएसबीएन :978-1-61301-161

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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है


पटेश्वरी— जीने को अभी क्या है होरी, ऐसे हिम्मत क्यों हारते हो। अच्छा मैं जाता हूँ।

[जाता है। इसी समय कुत्तों के भूँकने की आवाज आती है। सभी उधर देखने लगते हैं। सहसा रूपा, सोना उधर बढ़ती हैं। रूपा चीखती हुई भागती है।]

रूपा— भैया आये, भैया आये (भागती है)

सोना— भैया (दो कदम बढ़ कर रुक जाती है)

धनिया— (विह्वल) गोबर !

[झुनिया घूँघट उठा कर देखती है और द्वार पर खड़ी हो जाती है। गोबर आता है। नया रूप, नया रंग, शहरी कपड़े। आकर माँ-बाप के चरण छूता है।]

गोबर— अम्माँ...

धनिया— गोबर बेटा, बेटा, (कंठ बँध जाता है) जुग-जुग जियो। खुश रहो।

[कई क्षण छाती से लगाये रहती है। फिर गोबर रूपा को गोद में उठाकर प्यार करता है। सोना को थपथपाता है। होरी मुँह फेरे लेटा है।]

गोबर— अम्माँ, दादा को क्या हुआ?

धनिया— कुछ नहीं बेटा, जरा सिर में दर्द है। चलो कपड़े उतारो। कहाँ थे तुम, इतने दिन राह देखते-देखते आँखें फूट गयीं।

गोबर— (शर्मा कर) कहीं दूर नहीं गया था अम्माँ। यहीं लखनऊ में तो था।

धनिया— और इतने नियरे रह कर भी कभी एक चिट्ठी न लिखी।

[इसी बीच में सोना, रूपा सामान खोल कर फैलाती हैं। धनिया भी उधर बढ़ती है। बालक झुनिया की गोद में लपकना चाहता है पर वह उतरने नहीं देती।]

सोना— भैया तुम्हारे लिए एक कंघी लाये भाभी।

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