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नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक)

होरी (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8476
आईएसबीएन :978-1-61301-161

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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है

दूसरा दृश्य

[मंच पर होरी के घर का दृश्य। होरी और धनिया बैठे बातें कर रहे हैं।]

होरी— देख धनिया। इस साल जैसे भी हो सोना का ब्याह कर देना है। गल्ला तो मौजूद है। दो सौ रुपये भी हाथ आ जाये तो कन्या ऋण से उद्धार हो जाय। अगर गोबर सौ रुपये की मदद कर दे तो बाकी सौ रुपये आसानी से मिल जायँगे।

धनिया— गोबर से मैं एक पैसा भी नहीं लूँगी, किसी तरह नहीं।

होरी—  (झुँझलाकर) लेकिन काम कैसे चलेगा, यह बता।

धनिया— मान लो गोबर परदेस न गया होता, तब तुम क्या करते? वही अब करो।

होरी— मैं तुझी से पूछता हूँ।

धनिया— यह सोचना मरदों का काम है।

होरी— मान ले मैं न होता, तू ही अकेली रहती तब तू क्या करती वही कर।

धनिया— (तिरस्कार से) तब मैं कुस-कन्या भी दे देती, तो कोई हँसनेवाला न था।

होरी— लेकिन मैं नहीं दे सकता। बहनों के विवाह में तीन-तीन सौ बराती द्वार पर आये थे। दहेज भी अच्छा ही दिया था। आज भी बिरादरी में नाम है। कुस-कन्या देकर किसे मुँह दिखाऊँगा।

धनिया— मैं भी यही कहती हूँ।

होरी— तो जमीन बेच दूँ?

धनिया— बेच दोगे तो खेती कैसे करोगे?

होरी— खेती की सोचूँ या बेटी की सोचूँ? मेरा तो खून सूखता है। झिंगुरी, पटेश्वरी और नोखेराम के शहरी लड़के कई-कई बार द्वार की ओर ताकते हुए निकलते हैं।

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