नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
होरी— (काँप कर) क्या कहते हो?
धनिया— क्या हुआ? क्या बात है शोभा?
शोभा— दादा, कहते हैं मँगरू साह ने तुम पर डेढ़ सौ रुपये का दावा किया, उसी की डिग्री हो गई।
होरी— पर कब? मुझे तो पता भी नहीं।
शोभा— पता किसी को भी नहीं पर डिग्री हो गयी। कुर्क अमीन नीलाम करने आया है, चलो तो।
होरी— चल, मैं मंगरू साह से पूछता हूँ। (जाता है)
धनिया— मैं समझ गई, यह सब उस डाढ़ीजार पटवारी की कारस्तानी है, हाय रे, ढाई सौ की ऊँख थी, गाँव भर के ऊपर। नास हो जाय इसका, मर मिटे इसकी औलाद। हाय-हाय, तुम पटवारी से क्यों नहीं पूछते।
[बकती-झकती जाती है और परदा गिरता है]
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