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नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक)

होरी (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8476
आईएसबीएन :978-1-61301-161

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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है

तीसरा दृश्य

[वही होरी का घर। धनिया मन मारे द्वार पर बैठी है। सोना, रूपा बारी-बारी जाती है। वह नहीं बोलती। सिलिया भी दुखी मन चली जाती है, उससे भी नहीं बोलती। तभी होरी आता है। हारा-थका, जैसे पराजित होकर लौटा हो, एक क्षण उसे देखता है। वह भी देखती है। फिर कहता है]

होरी— दुलारी ने इन्कार कर दिया।

धनिया— (मौन)

होरी— मैंने जितनी चिरौरी-विनती हो सकती थी, की। मगर वह न पसीजी। ऊख नीलाम हो गई, रुपये न देगी। अब क्या करूँ?

धनिया— (एकदम) करोगे क्या ! जो तुम चाहते थे वही तो हुआ।

होरी— मेरा ही दोष है।

धनिया— किसी का दोष हो, हुई तुम्हारे मन की। मेरी सुनते तो देखते कैसे मेरे जीते जी मेरा खेत काट ले जाता।

होरी— अब मेरी वह चीज मँगरू साह की है।

धनिया— मँगरू साह ने मर-मर कर जेठ की दुपहरी में सिंचाई और गोड़ाई की थी।

होरी— वह सब तूने किया, मगर जब वह चीज मँगरू साह की है। हम उनके करजदार नहीं हैं।

धनिया— नहीं हैं, तो कर लो बेटी का ब्याह। बड़े खुश हो रहे थे, बता क्या-क्या आवेगा।

होरी— ताने मत दे। बता जमीन रेहन रख दूँ?

धनिया— जमीन रेहन रख दोगे तो करोगे क्या?

होरी— मजूरी।

धनिया— (सहम कर) मजूरी...

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