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कलम, तलवार और त्याग-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8500
आईएसबीएन :978-1-61301-190

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स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व तत्कालीन-युग-चेतना के सन्दर्भ में उन्होंने कुछ महापुरुषों के जो प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किए थे, उन्हें ‘‘कलम, तलवार और त्याग’’ में इस विश्वास के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है


नीति और सदाचार का मानदंड प्रत्येक युग में बदलता रहता है। जो काम आज से १॰॰ साल पहले जायज़ समझा जाता था, आज अविहित है, और संभव है कि बहुत-सी बातें, जिन्हें आज हम बेझिझक करते हैं, १॰॰ साल बाद लज्जाजनक समझी जाने लगें। सौ साल का जमाना तो बहुत होता है, अभी २५ साल से अधिक नहीं बीते, जब होली के दिनों में हर शहर के विलासप्रिय रईसों को मंडलियों के साथ नशे में झूमते हुए गलियों की सैर करते देखना साधारण बात थी, पर अब यह लज्जाजनक समझा जाता है; बल्कि कोई भला आदमी आज शराब पीकर पब्लिक में निकलने की हिम्मत न करेगा। इन बातों को ध्यान में रखते हुए अगर हम रणजीतसिंह के आचरणों को जाँचें-परखें तो हम निश्चय ही इस नतीजे पर पहुँचेंगे कि शासक के मानदंड से देखते हुए उनसे बहुत कम ऐसे कर्म हुए हैं, जिन पर उन्हें लज्जित होना पड़े। पर हाँ, इस मानदंड की शर्त है।

महाराज रणजीतसिंह बड़े ही स्थिरचित्त, परिश्रमी और परिणामदर्शी व्यक्ति थे। उनकी हिम्मत ने हारना सीखा ही न था। श्रमशीलता और कष्ट-सहिष्णुता का यह हाल था कि अक्सर दिन का दिन घोड़े की पीठ पर ही बीत जाता। सूझ-बूझ उनकी जबरदस्त थी। पुस्तकीय विद्या से बिलकुल कोरे थे। पर विद्वानों के साथ वार्तालाप और पर्यवेक्षण के द्वारा अपनी जानकारी इतनी बढ़ा ली कि यूरोपीय यात्रियों को उनकी बहुश्रुतता पर आश्चर्य होता था। साहस तो उनका स्वभाव ही था। साहसिक कार्यों के, खासकर साहस-भरी यात्राओं के वृत्तांत बड़ी रुचि से सुनते थे। यूरोप की नई खोजों और आविष्कारों का पता रखने को उत्सुक रहते थे। उनका पहनावा बहुत सादा और बनावट से खाली होता था। और यद्यपि देखने में सुन्दर न थे, बल्कि यह कहना अधिक सत्य होगा कि कुरूप थे और डील-डौल के विचार से भी कुछ अधिक भाग्यशाली न थे, पर उनके गुणों ने इन बाह्य दोषों को छिपा लिया था। चेहरे पर चेचक के भद्दे दाग थे, और एक आँख भी उसकी नज़र हो चुकी थी, फिर भी मुखमंडल पर एक तेज बरसा करता था। फ़क़ीर अजीजुद्दीन लाहौर दरबार में परराष्ट्र सचिव पद पर नियुक्त थे। एक बार दूत रूप में लार्ड बैटिंग के पास गये। बातचीत के सिलसिले में लार्ड बैटिंग पूछ बैठे कि महाराज की कौन-सी आँख जाती रही है। अजीजुद्दीन ने इसके जवाब में कहा–जनाब! मेरे प्रतापी स्वामी के चेहरे पर वह तेज है कि हममें से किसी को इतना साहस न हुआ कि उनकी ओर आँख उठा सकें। उत्तर यद्यपि अतिरंजना से रहित न था, फिर भी उससे रणजीतसिंह के उस रोब का पता चलता है, जो दरबारवालों के दिलों पर छाया हुआ था।

रणजीतसिंह जन्मसिद्ध शासक थे। उनमें कोई ऐसा गुण, कोई ऐसी शक्ति, कोई ऐसा आकर्षण था, जो बड़े-बड़े हेकड़ों और अहम्मन्यों को भी उनकी अधीनता स्वीकार करने को बाध्य कर देता था। आदमियों को परखने की उनमें जबरदस्त योग्यता थी और उनकी सफलता का बहुत बड़ा कारण उनका यही गुण था। कौन आदमी किस काम को औरों से अच्छी तरह कर सकता है, इसका निर्णय करना आसान बात नहीं है। शाहजहाँ, जहाँगीर, औरंगजेब बड़े-बड़े बादशाह थे, पर उनके राज में आये दिन बगावतें और साजिशें होती रहती थीं, और सूबेदारों को दबाने के लिये अक्सर दिल्ली से फौजें रवाना करनी पड़ती थीं। रणजीतसिंह के राज्यकाल में ऐसी घटनाएँ कदाचित् ही होती थीं। उस उथल-पुथल के जमाने में भी उनके कर्मचारी कितनी सचाई से काम करते थे, यह देखकर आश्चर्य होता है। महाराज धर्मगत निष्पक्षता के सजीव  उदाहरण थे, खासकर राजकर्मचारियों के चुनाव में इस राग-द्वेष को ज़रा भी दख़ल न देने देते थे। इस नीति में वह अकबर से भी बढ़े हुए थे।

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