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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


धर्म-सम्प्रदायों के मतभेदों का सक्रिय शत्रुता के रूप में परिवर्तित हो जाना कितना आसान है, यह हम आये दिन आँखों से देख रहे हैं। आज ज़रा-ज़रा सी बातों पर, जिनका सिद्धान्त की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं, आपस में मारकाट मच जाती है और राष्ट्र की शक्ति का बड़ा भाग इस गृह-कलह के अग्निकुंड में स्वाहा हो जाता है। ऐसा कोई साल नहीं जाता, जब दो-चार स्थानों में लोमहर्षण साम्प्रदायिक दंगे न हो जाते हों। कितने दुःख की बात है कि उस उभय पक्ष की अनुदारता और अदूरदर्शिता ने आपस के उस मेल-मिलाप और सहिष्णुता के रास्ते में रोड़े अटका दिये, जिसकी नींव पर ही संयुक्त राष्ट्रीयता की इमारत उठाई जा सकती है। संभव है, सर सैयद ने इस विचार से कि मुसलमान पहले इस देश पर राज्य कर चुके हैं, उनके साथ कुछ विशेष प्रदर्शन की आवश्यकता समझी हो, पर हिन्दू समान पद से अधिक और किसी रियायत के लिए तैयार न थे।

सर सैयद ने उस समय उदारता से काम लिया होता, तो हिन्दुस्तान की हालत कुछ और होती। पर उन्होंने तात्कालिक और निकट भविष्य के लोभों को स्थायी और राष्ट्रीय हितों पर प्रधानता दी। शासित हिन्दुओं की अपेक्षा शासक अँगरेज़ों से मेल रखना कहीं अधिक लाभजनक था। सरकार के हाथ में अधिकार थे और उन्नति के अपरिमित साधन थे। हिन्दुओं की दोस्ती में परस्पर मिलकर रोने के सिवा और क्या धरा था ? सर सैयद का यह विचार-परिवर्तन उस समय और भी स्पष्ट हो गया, जब वह विलायत गये। वहाँ उन्होंने जो कुछ देखा, उससे इस नतीजे पर पहुँचे कि मुसलमानों का हित अँगरेजों से मेल रखने में है, और इस प्रकार उस कार्यप्रणाली की नींव पड़ी, जो दिन-दिन अधिकाधिक भयावह रूप धारण करती जा रही है। यहाँ तक कि आज उसने आपस के मेल-मिलाप को ही असंभव नहीं बना दिया है, देश के वायुमंडल को भी विषाक्त कर दिया है। देश दो परस्परविरोधी भागों में विभक्त हो गया है और उसका घातक प्रभाव आपस की मारकाट के रूप में प्रकट होता है। दोनों पक्ष एक तीसरी शक्ति का अधिकारारूढ़ रहना अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अनिवार्य आवश्यक समझते हैं। सर सैयद जैसे प्रभावशाली और प्रगतिशील पुरुष ने संयुक्त राष्ट्रीयता का पक्ष ग्रहण किया होता, तो आज हिन्दुस्तान कहीं से कहीं पहुँचा होता। गंदे गढ़े के कीटाणु ऐसे सख्तजान होते हैं कि एक बार जहाँ पुष्ट हुए कि फिर उनका नाश असम्भव हो जाता है। अतः उस समय से अब तक मेल और एका के जितने यत्न किए गए, सब विफल हुए। एकता और मेल की मंजिल आज भी उतनी ही दूर है।

सर सैयद में आदमियों को पहचानने की स्वाभाविक शक्ति थी और जिस व्यक्ति के प्रति एक बार उनकी अच्छी धारणा हो गई, फिर उसके विरुद्ध कोई शिकायत न सुनते थे। मेहनत का यह हाल था कि अकेले जितना दिमागी काम कर सकते थे, उतना कई आदमी मिलकर भी न कर सकते थे। बहुत ही हँसमुख, मुरौवतदार, उदारमना और सुवक्ता थे। उनकी वाणी में मोहिनी थी, सुननेवाले मन्त्रमुग्ध-से हो जाते थे। उनका कहना था कि किसी महत्कार्य की सिद्धि के लिए विद्वत्ता की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी अनुभव और अवसर पहचानने की योग्यता की। विरोधी भी उनके सामने जाकर सहायक बन जाता। बुद्धि इतनी तीक्ष्ण थी कि उससे प्रभावित न होना असंभव था।

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