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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ



मौ० अब्दुल हलीम ‘शरर’

मौलाना अब्दुल हलीम ‘शरर’ के पिता हकीम तफ़ज्जुल हुसैन साहब साधुप्रकृति, धर्मनिष्ठ मुसलमान थे। हनफ़ी सम्प्रदाय के अनुयायी, सूफी सिद्धान्तों के माननेवाले, लखनऊ के झँवाई टोले में रहते थे। इसी मकान में ग़दर के दो साल बाद १७ जमादी उस्सानी सन् १२७५ हिज्री को दो बजे सुबह मौलाना शरर ने जन्म लिया।
 
हकीम तफ़ज्जुल हुसैन मध्यम श्रेणी के व्यक्ति थे और शाही मुंशियों में नौकर थे। फिर भी लड़के को पढ़ाने-लिखाने की पूरी कोशिश की। छः साल की उम्र में मौलाना की पढ़ाई का सिलसिला शुरू हुआ। साल भर तक माता के पास पढ़ते रहे और क़ुरान का एक पारा भी समाप्त न हुआ। बचपन में वह बड़े ही नटखट थे। माता ने एक बार किसी बात पर क्रुद्ध होकर मारा, तो इन्होंने गुस्से में उनकी उँगली चबा ली। मौलाना आठ बरस के हुए, तो उनके पिता कलकत्ते में मुंशी उस्सुलतान के दफ्तर में नौकर होकर वहाँ जाने लगे और इन्हें भी साथ लेते गए। वहीं उनकी पढ़ाई होने लगी। पहले हाफिज इलाहीबख्श से साल भर में क़ुरान समाप्त किया। फिर दो बरस में ‘मैयते आमिल’, ‘गुलिस्ताँ’ और ‘बोस्ताँ’ पढ़ी। मुल्ला बाकर से ‘हिदायतुलनही’, ‘काफ़ियाँ’, और ‘मुल्लाजामी’ का अध्ययन किया। मुंशी अब्दुल लतीफ़ से ‘शहर बक़ाया’ और खुश नवीसी (लिपि कला) सीखी। मौलाना तबातबाई से भी कुछ अरबी की किताबें निकालीं। हकीम मसीह से हकीमी पढ़ी और १५ साल की उम्र में शाही मुंशियों में अपने पिता की जगह पर नौकर हो गए।

उनके पिता लखनऊ चले आये। उस समय मौलाना का उठना-बैठना शाही खानदान के युवकों के साथ था और सुहबत के असर ने कुछ रंग बदला, तो उनके पिता ने उनको लखनऊ बुलवा लिया। यहाँ आकर मौलाना अब्दुलहई के शागिर्द मौलवी अब्दुल बारी से दर्शन की पुस्तकें पढ़ीं और मौलाना अब्दुलहई से भी कुछ अध्ययन किया। लखनऊ से देहली गये और मौलाना नज़ीद हुसेन साहब से हदीस की पुस्तकें पढ़ीं तथा अब्दुलवहाब नज्दी की ‘तौहीद’ नामक पुस्तिका का उलथा किया। देहली से ख़ासे तर्कवादी बनकर लखनऊ आ गए। यहाँ आपके पिता ने हकीम सादुद्दीन की बेटी से ब्याह तै कर रखा था, सो लखनऊ आते ही शादी हो गई। अब मौलाना ‘‘अवध अखबार’’ में ३० रू. मासिक पर नौकर हो गए। कुछ अँगरेज़ी भी सीख ली थी। शायरी का शौक पैदा हुआ। उस ज़माने में मुंशी अमीर अहमद मीनाई की शायरी की बड़ी धूम थी, उन्हीं के शार्गिद हुए और ‘शरर’ (चिनगारी) उपनाम रखा।

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