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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502
आईएसबीएन :978-1-61301-191

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महापुरुषों की जीवनियाँ


रोम नगर सदा से चित्रकारों का तीर्थस्थान रहा है। यही नगर है, जहाँ यूरोपीय चित्रकला की नींव डाली गई थी। पोपलियों के समय से यह नगर नामी चित्रकारों का आवास रहा है। राफाएल, माइकेल एंजेलो, क्रेजियो, जिनको चित्रविद्या का विश्वकर्मा कह सकते हैं, इसी पुनीत भूमि से उत्पन्न हुए थे। ल्यूनाडों और टेशीन इसी बस्ती के बसनेवाले थे। उन्होंने जो तसवीरें ढालकर वहाँ की चित्रशालाओं में रख दीं, वह आजतक बेजोड़ और चित्रकला की इयत्ता समझी जाती हैं। जैसे कालिदास, होमर और फिरदौसी का काव्य अनुकरण से परे है, उसी तरह ये चित्र भी नकल की नोच-खसोट से सुरक्षित हैं। सारे यूरोप की चित्रकला प्रेमी इन चित्रों को देखने जाते हैं। कोई चित्रकार उस समय तक चित्रकार नहीं बन सकता, जब तक इन चित्रों का भलीभाँति अध्ययन न कर ले। यद्यपि उन चार-चार सदियों की धूल पड़ी हुई है; पर उनकी रंगत की ताज़गी में तनिक भी अन्तर नहीं पड़ा है। मालूम नहीं, कहाँ से ऐसे रंग लाये हैं, जो मद्धिम होना जानते नहीं।

रेनाल्ड्स ने रोम की बड़ी बड़ाई सुनी थी और उसके दिल से लगी थी कि किसी तरह वहाँ की सैर करे, पर पास में पैसा न होने से लाचार था। आखिर उसके एक नाविक मित्र ने उसे रोम की सैर का निमन्त्रण दिया और दोनों दोस्त चल खड़े हुए। पहले पुर्तगाल की राजधानी लिसबन की सैर की, फिर जबलुल तारिक़ (?) गये और यहाँ से रोम पहुँचे। इस नगर ने पहले पहल चित्त पर जो प्रभाव डाले, उनका उसने विस्तार से वर्णन किया है। कहता है–

‘‘अक्सर ऐसा होता है कि लोग पोप की चित्रशाला (यह चित्रशाला पोपलियों ने स्थापित की थी और इसमें इटली के यशस्वी चित्रकारों की कृतियाँ रखी हुई हैं।) की सैर के बाद जब विदा होने लगते हैं, तो पथदर्शक से पूछते हैं, यहाँ राफाएल के चित्र कहाँ हैं ? वह इन तस्वीरों को सरसरी तौर पर देख जाते हैं और उन्हें कोई खास खूबी नहीं दिखाई देती। मैंने जब पहले-पहल चित्रशाला की सैर की, तो मुझको भारी निराशा हुई। यही स्थिति मेरे एक चित्रकार मित्र की थी। पर यद्यपि मुझको इन चित्रों को देखने से वह आनन्द न आया, जिसकी आशा थी। फिर भी एक क्षण के लिए भी मेरे मन में यह बात न आयी कि राफाएल की प्रसिद्धि दूर के ढोल हैं। मैंने इस विषय में अपने को ही दोषी ठहराया। ऐसी अद्भुत अनुपम वस्तुओं से प्रभावित न होना बड़ी लज्जा की बात थी। पर इसका कारण यह था कि न तो मैं उन सिद्धान्तों से परिचित था, जिन पर वह चित्र बनाए गए थे, और न इसके पहले कभी मुझे चित्रकला के आचार्यों की कृतियाँ देखने का अवसर मिला था। मुझे अब मालूम हुआ कि चित्रकला के विषय में जो विचार मैं इंग्लैण्ड से लाया हूँ, वह बिलकुल ग़लत और बहकानेवाले हैं। आवश्यक जान पड़ा कि उन सब भ्रान्त विचारों को मैं अपने मन से निकाल डालूँ और अन्त में ऐसा ही किया। इस निराशा के बाद भी एक तसवीर की नकल उतारने लगा। मैंने उसे बार-बार देखा, उसकी खूबियों और बारीकियों पर देर तक गौर किया। थोड़े ही अरसे में मेरे हृदय में नई रुचि और नई अनुभूति उत्पन्न हो गई।’’

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