उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
देवप्रिया–खूब याद है, प्राणेश! खूब याद है।
राजकुमार–वह दृश्य याद है, जब मैं लता-कुंज में घास पर बैठा हुआ तुम्हें पुष्पाभूषणों से अलंकृत कर रहा था?
देवप्रिया–हाँ प्राणनाथ, खूब याद है। यही तो स्थान है।
राजकुमार–पाँचवाँ दृश्य वह था, जब मैं मृत्यु शैय्या पर पड़ा हुआ था। माता-पिता सिरहाने खड़े थे और तुम मेरे पैरों पर सिर रखे रो रही थीं। याद है?
देवप्रिया–हाय प्राणनाथ! वह दिन भूल सकती हूँ?
राजकुमार–एक क्षण में मेरी आँखें खुल गईं। पर जो कुछ देखा था, वह सब आँखों में फिर रहा था, मानों बचपन की बातें हों। मैंने महात्मा से पूछा–मेरे माता-पिता जीवित हैं? उन्होंने एक क्षण आँखें बन्द करके सोचने के बाद कहा–उनका देहावसान हो गया है। तुम्हारे शोक में दोनों घुल-घुलकर मर गए।
मैं–और मेरी स्त्री?
महात्मा–वह अभी जीवित है।
मैं–किस नगर में है?
महात्मा–काशी के समीप जगदीशपुर में। किन्तु तुम्हारा वहाँ जाना उचित नहीं, यह ईश्वरीय इच्छा के विरुद्ध होगा और संस्कारों के क्रम को पलटना अनिष्ट का मूल है।
मैंने उस समय तो कुछ न कहा, पर उसी क्षण तुमसे मिलने का दृढ़ संकल्प कर लिया। मुझे अब वहाँ एक-एक क्षण एक-एक युग हो गया। दो दिन तो मैं किसी तरह रहा, तीसरे दिन मैंने महात्माजी से विदा लेकर प्रस्थान कर दिया। महात्माजी बड़े प्रेम से मुझसे गले मिले और चलते-चलते ऐसी क्रिया बतलायी, जिसके द्वारा हम अपनी आयु और बल को इच्छानुसार बढ़ा सकते हैं। तब मुझे गले से लगाकर एक यान पर बैठा दिया। यान मुझे हरिद्वार पहुँचाकर आप-ही-आप लौट गया। यह उनके यानों की विशेषता है। हरिद्वार में मैं सीधा हर्षपुर पहुँचा और एक सप्ताह तक माता-पिता की सेवा में रहकर यहाँ आ पहुँचा। तुमसे मिलने के पहले मैं कई बार इधर निकला। यहाँ की हर एक वस्तु मेरी जानी-पहचानी मालूम होती थी। दो-चार पुराने दोस्त भी दिखलाई दिए; पर उनसे मैं बोला नहीं। एक दिन जगदीशपुर की सैर भी कर आया। ऐसा मालूम होता था कि मेरी बाल्यावस्था वहीं गुज़री हो। तुमसे मिलने के पहले कई दिन गहरी चिन्ता में पड़ा रहा। एक विचित्न शंका होती थी। अकस्मात् तुमसे पार्क में मुलाकात हो गई। कह नहीं सकता, तुम्हें देखकर मेरे चित्त की क्या दशा हुई। ऐसा जी चाहता था, दौड़कर हृदय से लगा लूँ। महात्मा के अन्तिम शब्द भूल गए और वहाँ तुमसे मिल गया।
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