उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
देवप्रिया ने रोते हुए कहा–प्राणनाथ, आपके दर्शन पाते ही मेरा हृदय गद्गद हो गया। ऐसा मालूम हुआ, मानों आपसे मेरा पुराना परिचय है, मानो मैं ने आपको कहीं देखा है। आपने एक दृष्टि से मेरे मन के उन भावों को जागृत कर दिया जिन्हें मेरी विलासिता ने कुचल-कुचलकर शिथिल कर दिया था। स्वामी! मैं आपके चरणों को स्पर्श करने योग्य नहीं हूँ; लेकिन जबतक जीऊँगी, तब तक आपकी स्मृति को हृदय से संचित रखूँगी।
राजकुमार–प्रिये, तुम्हें मालूम है, विवाह का सम्बन्ध देह से नहीं, आत्मा से है। क्या आत्मा अनंत और अमर नहीं?
देवप्रिया ने इसका कोई उत्तर न दिया। प्रश्नसूचक नेत्रों से राजकुमार की ओर ताकने लगी।
राजकुमार–तो अब तुम्हें मेरे साथ चलने में कोई आपत्ति नहीं है?
देवप्रिया ने रुँधे हुए कण्ठ से कहा–प्राणनाथ, आप मुझसे यह प्रश्न क्यों करते हैं? आप मेरा उद्धार कर रहे हैं, आपको छोड़कर और किसकी शरण जाऊँगी? अब तो मुझे आप मार-मारकर भी भगाएँ, तो आपका दामन न छोड़ूँगी, आह स्वामी! यह शुभ अवसर जीते-जी मिलेगा, इसकी तो स्वप्न में भी आशा न थी। मेरा सौभाग्य-सूर्य इतने दिनों के बाद फिर उदय होगा, यह तो कदाचित् मेरे देवताओं को भी मालूम न होगा। न जाने किसके पुण्य प्रताप से मुझे यह दिन देखना नसीब हुआ है। कौन स्त्री इतनी सौभाग्यवती हुई है? आपको पाकर मैं सब कुछ पा गई। अब मुझे किसी बात की अभिलाषा नहीं रही। आपकी चेली हूँ–वही चेली, जो एक बार आपके ऊपर अपना सर्वस्व अर्पण कर चुकी है।
राजकुमार ने रानी को कण्ठ से लगाकर कहा–यह हमारा पुर्नसंयोग है!
देवप्रिया–नहीं प्राणनाथ, मैं इसे प्रेम-मिलन समझती हूँ।
यह कहते-कहते रानी चुप हो गई। उसे याद आ गया कि मुझ जैसी वृद्धा ऐसे देवरूप पुरुष के योग्य नहीं है। अभी दया के वशीभूत होकर यह मेरा उद्धार कर देंगे, पर दया कब तक प्रेम का पार्ट खेलेगी? सम्भव है, इनकी दया–दृष्टि मुझ पर सदैव बनी रहे, लेकिन मैं रनिवास की युवतियों को कौन मुँह दिखाऊँगी, जनता के सामने कैसे निकलूँगी? उस दशा में तो दया मेरी रक्षा न कर सकेगी। वह अवस्था तो असह्य हो जाएगी।
राजकुमार ने उसके मनोभवों को ताड़कर कहा–प्रिये, तुम्हारे मन में शंकाओं का उठना स्वाभाविक है, लेकिन उन्हें निकाल डालो। मैं विलास का दास होता, तो तुम्हारे पास आता ही नहीं! मेरे चित्त की वृत्ति वासना की ओर नहीं है। मैं रूप-सौन्दर्य का मूल्य जानता हूँ और उनका मुझ पर कोई आकर्षण नहीं हो सकता। मेरे लिए तो तुम इस रूप में भी उतनी ही प्रिय हो। हाँ, तुम्हारे संतोष के लिए मुझे वह क्रियाएँ करनी पड़ेंगी, जो महात्माजी ने चलते-चलते बताई थीं, जिसके द्वारा मैंने मायान्धकार पर विजय पायी, उसके द्वार काल की गति को भी पलट सकूँगा। मुझे विश्वास है कि मुर्झाया हुआ फूल एक बार फिर हरा हो जाएगा–वही छवि, वही सौरभ, वही कोमलता फिर इसकी बलाएँ लेंगी। लेकिन तुम्हें भी मेरे लिए बड़े-बड़े त्याग करने पडेंगे। संभव है, तुम्हें राजभवन के बदले किसी वन में वृक्षों के नीचे रहना पड़े, रत्न-जड़ित आभूषणों के बदले वन्य पुष्पों पर ही संतोष करना पड़े। क्या तुम उन कष्टों को सह सकोगी?
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