उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
320 पाठक हैं |
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
देवप्रिया–आपको पाकर अब मुझे किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं रही। विलास सच्चे सुख की छाया मात्र है। जिसे सच्चा सुख मयस्सर हो, वह विलास की तृष्णा क्यों करें?
रानी मुँह से तो ये बातें कह रहीं थीं, किन्तु इस विचार से उनका चित्त प्रफुल्लित हो रहा था कि मेरा यौवन-पुष्प फिर खिलेगा, और सौन्दर्य-दीपक फिर जलेगा।
राजकुमार–तो अब मैं जाता हूँ। कल संध्या समय फिर आऊँगा। इसी बीच में तुम यात्रा की तैयारी कर लेना।
देवप्रिया ने राजकुमार का हाथ पकड़कर कहा–मैं आपके साथ चलूँगी! मुझे न जाने कैसी शंकाएँ हो रही हैं। मैं अब एक क्षण के लिए भी आपको न छोडूँगी।
राजकुमार–यों चलने से लोगों के प्रति भाँति-भाँति की शंकाएँ होंगी। मेरे पुनर्जन्म का किसी को विश्वास न आएगा; समझेंगे कि ऐब को छिपाने के लिए यह कथा गढ़ ली गई है, केवल कुत्सित प्रेम को छिपाने के लिए कौशल किया गया है। इसलिए तुम किसी तीर्थयात्रा...
रानी ने बात काटकर कहा–मुझे अब लोकनिन्दा का भय नहीं है। मैं यह कहने को तैयार हूँ कि अपने प्राणपति के साथ जा रही हूँ।
राजकुमार ने मुस्कुराकर कहा–अगर मैं तुमसे दग़ा करूँ तो?
रानी ने भयातुर होकर कहा–प्राणनाथ, ऐसी बातें न करो। मैं अपने को तुम्हारे चरणों पर अर्पण कर चुकी, लेकिन कुसंस्कारों से मुक्त नहीं हूँ। यदि कोई आदमी अभी आकर मुझसे कहे कि इन्द्रजाल का खेल कर रहे हैं, तो मैं नहीं कह सकती कि मेरी क्या दशा होगी। अलौकिक बातों को समझने के लिए अलौकिक बुद्धि चाहिए और मैं इससे वंचित हूँ। तवे हनर्षपठ भाव से अपने मन की दुर्बलताएँ प्रकट कर रही हूँ। मुझे क्षमा कीजिएगा। अभी बहुत दिन गुज़रेंगे, जब मैं इस स्वप्न को यथार्थ समझूँगी। उस स्वप्न को भंग न कीजिए। इस वक़्त यहीं आराम कीजिए, रात बहुत बीत गई है। मैं तब तक कुँवर विशालसिंह को सूचना दे दूँ कि वह आकर अपना राज्य सँभाले। कल मैं प्रातःकाल आपके साथ चलने को तैयार हो जाऊँगी।
यह कहकर रानी ने राजकुमार के लिए भोजन लाने की आज्ञा दी। जब वह भोजन करने लगे, तो आप ही खड़ी होकर उन्हें पंखा झलने लगी। ऐसा स्वर्गीय आनन्द उसे कभी प्राप्त न हुआ था। उसके मर्मस्थल में प्रेम और उल्लास की तरंगे उठ रही थीं, जी चाहता था कि इसी क्षण इनके चरणों पर गिरकर प्राण त्याग दूँ।
|