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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


कुँवर साहब लेटने गए, तो रानी ने विशालसिंह के नाम पर पत्रा लिखा–

‘कुँवर विशालसिंहजी,
इतने दिनों तक मायाजाल में फँसे रहने के बाद अब मेरा चित्त संसार से विरक्त हो गया है। मैं तीर्थयात्रा करने जा रही हूँ और शायद फिर न लौटूँगी। किसी तीर्थस्थान में ही अपने जीवन के शेष दिन काटूँगी। आपको उचित है कि आकर अपने राज्य का भार सँभालें। मुझे खेद है कि मेरे कारण आपको बड़े-बड़े कष्ट भोगने पड़े। आपने मेरे साथ जो अनीति की, उसे भी मैं क्षमा करती हूँ। मायान्ध होकर हम सभी ऐसा करते हैं। मेरी आपसे इतनी ही प्रार्थना है कि मेरी लौंडियों और सेवकों पर दया कीजिएगा।
मैं अपने साथ कोई चीज़ नहीं ले जा रही हूँ। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह आपको सद्बुद्धि दे और आपकी कीर्ति देश-देशान्तरों में फैलाएं! मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मेरे इससे बढ़कर आनन्द की और कोई बात न होगी।

आपकी–देवप्रिया’


यह पत्र लिखकर रानी ने मेज़ पर रखा ही था कि उन्हें ख्याल आया, मैं अपना राज्य क्यों छोडूँ? मैं हर्षपुर से भी तो इसकी देखभाल कर सकती हूँ। साल में महीने, दो महीने के लिए यहाँ आना कौन मुश्किल है? चलकर प्राणनाथ से पूछूँ, उन्हें इसमें कोई आपत्ति तो न होगी! वह राजकुमार के कमरे के द्वार तक गयी, पर अन्दर कदम न रख सकीं। ख्याल आया, समझेंगे अभी तक इसकी तृष्णा बनी हुई है। उल्टे पाँव लौट आयीं।

रात के दो बज गए थे। देवप्रिया यात्रा की तैयारियाँ कर रही थी। उसके मन में प्रश्न हो रहा था, कौन-सी चीज़ें साथ ले ऊँ? पहले वह अपने वस्त्रागार में गयी। शीशे की अलमारियों में एक-से-एक अपूर्ण वस्त्र चुने हुए थे। इस समूह में से उसने खोजकर अपनी सुहाग की साड़ी निकाल ली, जिसे पहने आज २४ वर्ष हो गए। आज उसकी शोभा और सभी साड़ियों में बढ़ी हुई थी। उसके सामने सभी कपड़े फीके लगते थे।

फिर वह अपने आभूषणों की कोठरी में गयी। इन आभूषणों पर वह जान जेती थी। ये उसे अपने से भी प्रिय थे। लेकिन इस समय इनको छूते हुए उसे ऐसा भय हो रहा था, मानो चोरी कर रही है। उसने बहुत साहस करके रत्नों का वह सन्दूकचा निकाला, जिस पर इन २४ वर्षों में उसने लाखों रुपये खर्च किए थे और उसे अंचल में छिपाए हुए बाहर निकली। इस लोभ को वह संवरण न कर सकी।

वह अपने कमरे में आकर बैठी ही थी कि गुजराती आकर खड़ी हो गई। देवप्रिय ने पूछा–सोयी नहीं?

गुजराती–सरकार नहीं सोयीं, तो मैं कैसे सोती?

‘मैं तो कल तीर्थयात्रा करने जा रही हूँ।’

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