उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
‘मुझे भी साथ ले चलिएगा?’
‘नहीं, मैं अकेली जाऊँगी।’
‘सरकार, लौटेंगी कब तक?’
‘कह नहीं सकती। बहुत दिन लगेंगे। बता, तुझे क्या उपहार दूँ?’
‘मैं तो एक बार माँग चुकी। लूँगी, तो वही लूँगी।’
‘मैं तुझे नौलखा हार दूँगी।’
‘उसकी मुझे इच्छा नहीं?’
‘जड़ाऊँ कंगन लेगी?’
‘जी नहीं! ’
‘वह रत्न लेगी, जो बड़ी-बड़ी रानियों को भी मयस्सर नहीं?’
‘जी नहीं, वह आप की को शोभा देगा।’
‘पागल है क्या! एक रत्न के दाम एक लाख से कम न होंगे! ’
‘आप ही को मुबारक हो! ’
रानी ने रत्नों का सन्दूकचा खोलकर गुजराती के सामने रख दिया और बोली–इनमें से जो चाहे, निकाल ले।
गुजराती ने सन्दूकचा बन्द करके कहा–मुझे इनमें से कोई न चाहिए।
रानी ने एक क्षण सोचने के बाद कहा–अच्छा, जा वही मूर्ति ले ले।
‘आप खुशी से दे रही हैं ना?’
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