उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
‘हाँ, खुशी से! ’
‘भगवान आपका भला करें।’
यह कहकर गुजराती खुश-खुश वहाँ से चली गयी। थोड़ी ही देर के बाद रानी भी रत्नों का सन्दूकचा लिए हुए उठीं और तोशखाने में जाकर उसे उस स्थान पर रख दिया, जहाँ से निकाला था। उनका मन एक क्षण के लिए चंचल हो गया लेकिन उसे धिक्कारती हुई वह जल्दी से अपने कमरे में चली आयीं।
सहसा कोयल की कूक सुनाई दी। रानी ने चौंककर द्वार का परदा हटा दिया। ऊषा की स्निग्ध, मधुर, संगीतमय आभा किवाड़ों के शीशे द्वारा कमरे में प्रवेश कर रही थी मानो किसी नवयौवना के हृदय में प्रेम का उदय हो रहा हो। उसी नवयौवन की भाँति देवप्रिया उस अरुण छटा को देखकर सशंक हो उठी। उसी समय राजकुमार द्वार पर आकर खड़े हो गए।
रानी ने कहा–मैं तैयार हूँ।’
राजकुमार–और मेरा जी चाहता है कि यहीं तुम्हारी उपासना में अपना जीवन व्यतीत करूँ। मुझे अपने उद्देश्य में जितनी सफलता हुई, उतनी मुझे आशा न थी। इस देश के सिवा ऐसी देवियाँ और कहाँ, जो इस भाँति अपने को आदर्श पर बलिदान कर दें?
आधे घंटे के बाद राजकुमार भी सन्ध्योपासना करके निकले। मोटर तैयार थी। दोनों आदमी उस पर आ बैठे। जब मोटर चली, तब रानी ने उस भवन को करुण नेत्रों से देखा और एक ठण्डी साँस ली। उसके हृदय की वही दशा हो रही थी, जो किसी नव-वधू की पति के जाते समय होती है। शोक और हर्ष, आशा और दुराशास ममत्व और विराग का एक विचित्र समावेश हो गया था।
१०
मुंशी वज्रधर विशालसिंह के पास से लौटे, तो उनकी तारीफ़ों के पुल बाँध दिए। रईस हो, तो ऐसा हो। आँखों में कितना शील है! किसी तरह छोड़ते ही ने थे। यों समझो कि लड़कर आया हूँ। प्रजा पर तो जान देते हैं। बेगार की चर्चा सुनी, तो उनकी आँखों मे आंसू भर गए। उनके ज़माने में प्रजा चैन करेगी। यह तारीफ़ सुनकर चक्रधर को विशालसिंह से श्रद्धा-सी हो गई। उनसे मिलने गए और समिति की सभाओं में नित्य सम्मिलित होते थे। अतएव अबकी उनके यहाँ कृष्णाष्टमी का उत्सव हुआ, तब चक्रधर अपने सहवर्गियों के साथ उसमें शरीक़ हुए।
कुँवर साहब कृष्ण के परम भक्त थे। उनका जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से कमनाते थे। उनकी स्त्रियों में इस विषय में मतभेद था। उनके व्रत भी अलग-अलग थे। तीजों के सिवा तीनों कोई एक व्रत न रखती थीं। रोहिणी कृष्ण की उपासक थी, तो वसुमति रामनवमी रखती, ज़मीन पर सोती और दुर्गापाठ सुनती। रही रामप्रिया, वह कोई व्रत न रखती थी। कहती–इस दिखावे से क्या फ़ायदा? मन शुद्ध होना चाहिए, यही सबसे बड़ी भक्ति है। जब मन में ईर्ष्या और द्वेष की ज्वाला दहक रही हो, राग और मत्सर की आँधी चल रही हो, तो कोरा व्रत रखने से क्या होगा। ये उत्सव आपस में प्रीति बढ़ाने के लिए मनाए जाते हैं। जब प्रीति के बदले द्वेष बढ़े, तो उनका न मनाना ही अच्छा!
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