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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


सन्ध्या हो गई थी। बाहर कँवल, झाड़ आदि जलाए जा रहे थे। चक्रधर अपने मित्रों के साथ बनाव-सजाव में मसरूफ़ थे। संगीत समाज के लोग आ पहुँचे थे। गाना शुरू होने वाला ही था वसुमती और रोहिणी में तकरार हो गई। वसुमती को यह तैयारियाँ एक आँख न भाती थीं। उसके रामनवमी के उत्सव में सन्नाटा-सा रहता था। विशालसिंह उस उत्सव में उदासीन रहते थे। वसुमती इसे उनका पक्षपात समझती थी। उसके विचार से उनके इस असाधारण उत्साह का कारण कृष्ण की भक्ति नहीं, रोहिणी के प्रति स्नेह था। वह दिल में जल-भुन रही थी। रोहिणी सोलहों श्रृंगार किए पकवान बना रही थी। कदचित् वसुमती को जलाने ही के लिए आप-से-आप गीत गा रही थी। घर के सब बर्तन उसी के यहाँ बिधे हुए थे। उसका यह अनुराग देख-देखकर वसुमती के कलेजे पर साँप-सा लोट रहा था। वह इस रंग में भंग मिलाना चाहती थी। सोचते-सोचते उसे एक बहाना मिल गया। महरी को भेजा, जाकर रोहिणी से कह–घर के बर्तन जल्दी खाली कर दें। दो थालियाँ दो बटलोइयाँ, कटोरे, कटोरियाँ माँग लो। उनके उत्सव के लिए दूसरे क्यों भूखे मरे। महरी गई, तो रोहिणी ने तन्नाकर कहा–आज इतनी जल्दी भूख लग गई। रोज़ तो आधी रात तक बैठी रहती थीं, आज आठ बजे ही भूख सताने लगी। अगर ऐसी ही जल्दी है, तो कुम्हारा के यहाँ से हाँडियाँ मँगवा लें। पत्तल मैं दे दूँगी।

वसुमती ने यह सुना, तो आग हो गई। हाँडियाँ चढ़ाएँ मेरे दुश्मन–जिनकी छाती फटती हो, मैं क्यों हाँडी चढ़ाऊँ? उत्सव मनाने की बड़ी साध है। तो नए बर्तन क्यों नहीं मँगवा लेती? अपने कृष्ण से कह दें, गाड़ी-भर बर्तन भेज दें। क्या जबरदस्ती दूसरों को भूखे मारेंगी?

रोहिणी रसोई से बाहर निकलकर बोली–बहन, ज़रा मुँह सँभालकर बातें करो। देवताओं का अपमान करना अच्छा नहीं।

वसुमती–अपनाम तो तुम करती हो, जो व्रत के दिन यों बन-ठनकर इठलाती फिरती हो। देवता रंग-रूप नहीं देखते, भक्ति देखते हैं।

रोहिणी–मैं बनती-ठनती हूँ, तो दूसरे की आँखें क्यों फूटती हैं? भगवान् के जन्म के दिन भी बनूँ-ठँनू? उत्सव में तो रोया नहीं जाता!

वसुमती–तो और बनो-ठनों, मेरे अँगूठे से। आँखें क्यों फोड़ती हो? आँखें फूट जायेगी, तो चुल्लू भर पानी भी ना दोगी!

रोहिणी–आज लड़ने पर उतारू हो आई हो क्या? भगवान् सब दुःख दें, पर बुरी संगत न दें। लो, यही गहने-कपड़े आँखों में गड़ रहे हैं? न पहनूँगी। जाकर बाहर कह दे, पकवान, प्रसाद किसी हलवाई से बनवा लें। मुझे क्या, मेरे मन का हाल भगवान् आप जानते हैं, पड़ेगी उनपर जिनके यह सब हो रहा है।

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