उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
रोहिणी–और क्या कहते हो? साफ़-साफ़ कहते हो, फिर मुकरते क्यों हो? मैं स्वभाव से ही झगड़ालू हूँ, दूसरों से छेड़-छेड़कर लड़ती हूँ। यह तुम्हें बहुत दूर की सूझी। वाह! क्या नई बात निकाली है। कहीं छपवा दो, तो खासा इनाम मिल जाएगा।
विशालसिंह–तुम बरबस बिगड़ रही हो। मैंने तो दुनिया की बात कही थी और तुम अपने ऊपर ले गईं।
रोहिणी–क्या करूँ, भगवान् ने बुद्धि ही नहीं दी। वहाँ भी ‘अंधेर नगरी और चौपट राजा’ होंगे। बुद्धि तो दो ही प्राणियों के हिस्से में पड़ी है, एक आपकी ठकुराइन के–नहीं नहीं, महारानी के–और दूसरे आपके। जो कुछ बची-खुची, वह आपके सिर में ठूँस दी गई।
विशालसिंह–अच्छा, उठकर पकवान बनाती हो कि नहीं? कुछ ख़बर है, नौ बज रहे हैं।
रोहिणी–मेरी बला जाती है! उत्सव मनाने की लालसा नहीं रही।
विशालसिंह–तो तुम नहीं उठोगी?
रोहिणी–नहीं, नहीं, नहीं। या और दो-चार बार कह दूँ?
वसुमती सायबान में बैठी हुई दोनों प्राणियों की बातें तन्मय होकर सुन रही थी।
मानों कोई सेनापति अपने प्रतिपक्षी की गति का अध्ययन कर रहा हो, कि कब यह चूके और कब मैं दबा बैठूँ। क्षण-क्षण में परिस्थिति बदल रही थी। कभी अवसर आता हुआ दिखाई देता था, फिर निकल जाता था, यहाँ तक कि अन्त में प्रतिद्वन्दी की एक भद्दी चाल ने उसे अपेक्षित अवसर दे दिया। विशालसिंह को मुँह लटकाए रोहिणी की कोठरी से निकलते देखकर बोली–क्या मेरी सूरत न देखने की कसम खाली है, या तुम्हारे हिसाब से घर में हूँ ही नहीं! बहुत दिन तो हो गए रूठे, क्या जन्म भर रूठे ही रहोगे? क्या बात है, इतने उदास क्यों हो?
विशालसिंह ने ठिठककर कहा–तुम्हारी ही लगवाई हुई आग को तो शान्त कर रहा था, पर उलटे हाथ जल गए। यह क्या रोज़-रोज़ तूफान खड़ा किया करती हो? चार दिन की जिन्दगी है, इसे हँस-खेलकर नहीं काटते बनता। मैं तो ऐसा तंग हो गया हूँ कि जी चाहता है कि कहीं भाग जाऊँ। सच कहता हूँ, ज़िन्दगी से तंग आ गया। यह सब आग तुम्हीं लगा रही हो।
वसुमती–कहाँ भागकर जाओगे? नई नवेली बहू को किस पर छोड़ोगे? नए ब्याह का कुछ सुख तो उठाया ही नहीं?
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