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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मुंशी–घर के जेवर ही तो आबरू हैं। वे घर से गए और आबरू गई!

राजा–हाँ, बदनामी तो ज़रूर है; लेकिन दूसरे उपाय ही क्या हैं?

दीवान–मेरी तो राय है कि असामियों पर हल पीछे १० रु. चन्दा लगा दिया जाय।

राजा–मैं अपने तिलकोत्सव के लिए असामियों पर जुल्म न करूँगा। इससे तो कहीं अच्छा है कि उत्सव ही न हो।

दीवान–महाराज, रियासतों में पुरानी प्रथा है। सब आसामी खुशी से देंगे, किसी को आपत्ति न होगी।

मुंशी–गाते-बजाते आएँगे और दे जाएँगे।

राजा–मैं किस मुँह से उनसे रुपये लूँ? गद्दी पर बैठ रहा हूँ, मेरे उत्सव के लिए आसामी क्यों इतना ज़ब्र सहें?

दीवान–महाराज, यह तो परस्पर का व्यवहार है। रियासत भी तो अवसर पड़ने पर हर तरह से आसामियों की सहायता करती है। शादी-ग़मी में रियासत से लकड़ियाँ मिलती हैं, सराकार चरावर में लोगों की गौएँ चरती हैं। और भी कितनी बातें हैं। जब रियासत को अपना नुकसान उठाकर प्रजा की मदद करनी पड़ती है, तब प्रजा राजा की शादी-ग़मी में क्यों न शरीक़ हो?

राजा–अधिकांश आसामी ग़रीब हैं; उन्हें कष्ट होगा।

मुंशी–हुज़ूर, आसामियों को जितना ग़रीब समझते हैं, उतने ग़रीब वे नहीं हैं। एक-एक आदमी लड़के-लड़कियों की शादी में हज़ारों उड़ा देता है। दस रुपये की रकम इतनी ज़्यादा नहीं कि किसी को अखर सके। मेरा तो पुराना तज़ुर्बा है। तहसीलदार था, तो हाकिमों को डाली देने के लिए बात-की-बात में हज़ारों रुपये वसूल कर लेता था।

राजा–मैं आसामियों को किसी भी हालत में कष्ट नहीं देना चाहता। इससे तो कहीं अच्छी बात होगी कि उत्सव को कुछ दिनों के लिए स्थगति कर दिया जाए; लेकिन अगर आप लोगों को विचार है कि किसी की कष्ट न होगा और लोग खुशी से मदद देंगे तो आप अपनी ज़िम्मेदारी पर वह काम कर सकते हैं। मेरे कानों तक कोई शिकायत न आए।

दीवान–हुज़ूर, शिकायत तो थोड़ी-बहुत हर हालत में होती ही है। इससे बचना असम्भव है। अगर कोई शिकायत न होगी, तो यही होगी कि महाराज साहब की गद्दी हो गई और हमारा मुँह भी न मीठा हुआ, कोई जलसा तक न हुआ। अगर किसी से कुछ न लीजिए, केवल तिलकोत्सव में शरीक़ होने के लिए बुलाइए, तब भी लोग शिकायत से बाज़ न आएँगे। नेवते को तलबी समझेंगे और रोएँगे कि हम अपने काम-धन्धे छोड़कर कैसे जाएँ। रोना तो उनकी घुट्टी में पड़ गया है। रियासत का कोई नौकर जा पड़ता है, तो महीनों उसका आदर-सत्कार होता है। राजा और प्रजा का सम्बन्ध ही ऐसा है। प्रजाहित के लिए भी कोई काम कीजिए, तो उसमें भी लोगों को शंका होती है। हल पीछे १० रु. बैठा देने से कोई ४ लाख हाथ आएँगे। रही रसद; वह तो बेगार में मिलती है। आपकी अनुमति की देर है।

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