उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मुंशी–जब सरकार ने यह कह दिया कि आप अपनी ज़िम्मेदारी पर वसूल कर सकते हैं, तो अनुमति का क्या प्रश्न? इसका मतलब तो इतना गहरा नहीं है कि बहुत डूबने से मिले। आप महाजनों को देखते हैं, मालिक मुनीम को लिखता है कि फलाँ काम के लिए रपया दे दो, मुनीम हीले-हवाले करके टाल देता है। हमारी अंग्रेज़ी सराकर ही को देखिए। ऊपरवाले हुक्काम कितनी मुलामियत से बातें करते हैं; लेकिन उनके मातहत खूब जानते हैं, किसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए। चलिए, हुज़ूर को तक़लीफ न दीजिए। मेडूखाँ, बस यही समझ लो कि निहाल हो जाओगे।
राजा–बस, इतना ख़याल रखिए कि किसी को कष्ट न होने पाए। आपको ऐसे व्यवस्था करनी चाहिए कि आसामी लोग सहर्ष आकर शरीक़ हों।
मुंशी–हुज़ूर का फ़रमान बहुत वाज़िब है। अगर हुज़ूर सख़्ती करने लगेंगे, तो उन ग़रीबों के आँसू कौन पोंछेगा, उन्हें तसक़ीन कौन देगा? हुकूमत करने के लिए तो आपके गुलाम हम हैं। सूरज जलाता भी है, रोशनी भी देता है। जलानेवाले हम हैं, रोशनी देनेवाले आप हैं। दुआ का हक़ आपका है, गालियों का हक़ हमारा। चलिए, दीवान साहब, अब हुज़ूर को सितार का शौक़ करने दीजिए।
दोनों आदमी यहां से चले, तो दीवान साहब ने कहा–ऐसा न हो कि शोरगुल मचे, हमारी जान आफ़त में फँसे।
मुंशीजी बोले–यह सब बगुला भगत-पन है। मैं तो रुख पहचानता हूँ। ग़रीबों का ज़िक्र ही क्या हमें कभी एक पैसे का नुकसान हो जाता है, तो कितना बुरा मालूम होता है। जिससे आप १० रुपये ऐंठ लेंगे, क्या वह खुशी से देगा? इसका मतलब यही है कि धड़ल्ले से रुपये की वसूली कीजिए। किसी राजा ने आज तक न कहा होगा कि प्रजा को सताकर रुपये वसूल कीजिए। लेकिन चन्दे जब वसूल होने लगे और शोर मचा, तो किसी ने कर्मचारियों की तम्बीह नहीं की। यही हमेशा से होता है और यही अब भी हो रहा है।
हुक्म मिलने की देर थी। कर्मचारियों के हाथ तो खुजला रहे थे। वसूली का हुक्म पाते ही बाग़-बाग़ हो गए। फिर तो वह अन्धेर मचा कि सारे इलाके में कुहराम पड़ गया। आसामियों ने नए राजा साहब से दूसरी आशाएँ बाँध रखी थीं। यह बला सिर पड़ी, तो झल्ला गए। यहाँ तक कि कर्मचारियों के अत्याचार देखकर चक्रधर का भी खून उबल पड़ा। समझ गए कि राजा साहब भी कर्मचारियों के पंजे में आ गए। उनसे कुछ कहना-सुनना व्यर्थ है। चारों तरफ़ लूट-खसोट हो रही थी गालियाँ और ठोंक-पीट तो साधारण बात थी। किसी के बैल खोल लिए जाते थे, किसी की गाय छीन ली जाती थी, कितनों ही के खेत कटवा लिए गए, बे-दखली और इज़ाफ़े की धमकियाँ दी जाती थीं। जिसने खुशी से दिये, उसका तो १० रु. से ही गला छूटा, जिसने हीले-हवाले किये, कानून बघारा, उसे १० रु. के बदले २० रु., ३० रु., ४० रु. देने पड़े। आखिर विवश होकर एक दिन चक्रधर ने राजा साहब से शिकायत कर ही दी।
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