उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
लौंगी–कोई ऐसी ही ज़रूरत आ पड़ी होगी, तभी आए होंगे १२० रुपये हुए न? मैं लाए देती हूँ।
ठाकुर–हाँ सन्दूक खोलकर लाना तो कोई कठिन काम नहीं। अखर तो उसे होती है, जिसे कुआँ खोदना पड़ता है।
लौंगी–वही कुआँ तो उन्होंने भी खोदा है। तुम्हें चार महीने तक कुछ न मिले, तो क्या हाल होगा, सोचो। मुझे तो बेचारे पर दया आती है।
यह कहकर लौंगी गयी और रुपये लाकर ठाकुर साहब से बोली–लो, दे आओ। सुन लेना, शायद कुछ कहना भी चाहते हों।
ठाकुर–लायी तो रुपये, नोट न थे क्या?
लौंगी–जैसे नोट वैसे रुपये, इसमें भी कुछ भेद है?
ठाकुर–अब तुमसे क्या कहूँ। अच्छा रख दो, जाता हूँ। पानी तो नहीं बरस रहा है कि भीग रहे होंगे।
ठाकुर साहब ने झुँझलाकर रुपये उठा लिये और बाहर चले, लेकिन रास्ते में क्रोध शान्त हो गया। चक्रधर के पास पहुँचे, तो विनय के देवता बने हुए थे।
चक्रधर–आपको कष्ट देने...
ठाकुर–नहीं-नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। मैंने आपसे दस-पाँच दिन में देने का वादा किया था। मेरे पास रुपये न थे, पर स्त्रियों को तो आप जानते हैं, कि कितनी चतुर होती हैं। घर में रुपये निकल आए। यह लीजिए।
चक्रधर–मैं इस वक़्त एक दूसरे ही काम से आया हूँ। मुझे एक काम से आगरे जाना है। शायद दो-तीन दिन लगेंगे। इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।
ठाकुर–हाँ, हाँ, शौक़ से जाइए। मुझसे पूछने की ज़रूरत न थी।
ठाकुर साहब अन्दर चले गये तब मनोरमा ने पूछा–आप आगरे क्या करने जा रहे हैं?
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