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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
युवक चला गया, तो झिनकू ने कहा–भैया, तुमने बेचारे को बहुत बनाया। मारे शरम के कट गया होगा। कुछ उसके साहबी ठाट की परवाह न की।
मुंशी–उसका साहबी ठाट देखकर ही तो मेरे बदन मे आग लग गई, आता तो आपको कुछ नहीं, पर ठाट ऐसा बनाया है, मानों खास विलायत से चले आ रहे हैं। मुझ पर बच्चा रौब ज़माने चले थे। चार हरफ अंग्रेज़ी पढ़ ली, तो समझ गए कि अब हम फाजिल हो गए। पूछो, जब आप बाज़ार से धेले का सौदा नहीं ला सकतें, तो आप हिसाब-किताब क्या करेंगे।
यहीं बातें हो रही थीं कि रानी मनोरमा की मोटर आकर द्वार पर खड़ी हो गई। मुंशीजी नंगे सिर, नंगे पाँव दौड़े। ज़रा भी ठोकर खा जाते, तो फिर उठने का नाम न लेते।
मनोरमा ने हाथ उठाकर कहा–दौड़िए नहीं, दौड़िए नहीं, मैं आप ही के पास आयी हूँ, कहीं भागी नहीं जा रही हूँ। इस वक़्त क्या हो रहा है?
मुंशी–कुछ नहीं हुज़ूर, कुछ ईश्वर का भजन कर रहा हूँ।
मनोरमा–बहुत अच्छी बात है, ईश्वर को ज़रूर मिलाए रहिए, वक़्त पर बहुत काम आते हैं, कम-से-कम दुःख, दर्द में उनके नाम से कुछ सहारा तो हो ही जाता है। मैं आपको इस वक़्त एक बड़ी खुशख़बरी सुनाने आयी हूँ। बाबूजी कल यहाँ आ जाएँगे।
मुंशी–क्या लल्लू?
मनोरमा–जी हाँ, सरकार ने उनकी मियाद घटा दी है।
इतना सुनना था कि मुंशीजी बेतहाशा दौड़े और घर में जाकर हाँफते हुए निर्मला से बोले–सुनती हो, लल्लू कल आएँगे। मनोरमा रानी दरवाज़े पर खड़ी हैं।
यह कहकर उलटे पाँव फिर द्वार पर आ पहुँचे।
मनोरमा–अम्माँजी क्या कर रही हैं, उनसे मिलने चलूँ?
निर्मला बैठी आटा गूँध रही थी। रसोई में केवल एक मिट्टी के तेल की कुप्पी जल रही थी, बाकी सारा घर अँधेरा पड़ा था। मुंशीजी सदा लुटाऊ थे, जो कुछ पाते थे, बाहर-ही-बाहर उड़ा देते थे। घर की दशा ज्यों-की-त्यों थी। निर्मला को रोने-धोने से फुर्सत ही न मिलती थी कि घर की कुछ फ़िक्र करती। अब मुंशीजी बड़े असमंजस में पड़े। अगर पहले से मालूम होता कि रानीजी का शुभागमन होगा, तो कुछ तैयारी कर रखते। कम-से-कम घर की सफाई तो करवा देते, दो-चार लालटेनें माँग-जाँचकर जला रखते पर अब क्या हो सकता था?
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