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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा ने उनके जवाब का इन्तज़ार न किया। तुरन्त मोटर से उतर पड़ी और दीवानखाने में आकर खड़ी हो गई। मुंशीजी बदहवास अन्दर गए और निर्मला से बोले–बाहर निकल आओ, हाथ-वाथ धो डालो। रानीजी आ रही हैं। यह दुर्दशा देखेंगी, तो क्या कहेंगी। तब तक आटा लेकर क्या बैठ गई! कोई काम वक़्त से नहीं करतीं। बुढ़िया हो गई, मगर अभी तमीज़ न आई।
निर्मला चटपट बाहर निकली। मुंशीजी उसके हाथ धुलाने लगे। मंगला चारपाई बिछाने लगी। मनोरमा बरोठे में आकर रुक गई। इतना अँधेरा था कि वह आगे कदम न रख सकी। मरदाने कमरे में एक दीवारगीर जल रही थी। झिनकू उतावली में उसे उतारने लगे, तो वह जमीन पर गिर पड़ी। यहाँ भी अँधेरा हो गया। मुंशीजी हाथ में कुप्पी लेकर द्वार की ओर चले, ‘तो चारपाई की ठोकर लगी। कुप्पी हाथ से छूट पड़ी, आशा का दीपक भी बुझ गया। खड़े-खड़े तकदीर को कोसने लगे–रोज़ लालटेन आती है और रोज़ तोड़कर फेंक दी जाती है। कुछ नहीं तो दस लालटेनें ला चुका हूँगा, पर एक का भी पता मालूम नहीं है। किसी कुली का घर है, उसके भाग्य की भाँति अँधेरा। ‘राक्षस के घर ब्याही जोय, भून-भान कलेवा होय।’ किसी चीज़ की हिफ़ाजत करनी तो आती ही नहीं।
मुंशीजी तो अपनी मुसीबत का रोना रो रहे थे, झिनकू दौड़कर अपने घर से लालटेन लाया, और मनोरमा घर में दाखिल हुई। निर्मला आँखों में प्रेम की नदी भरे, सिर झुकाए खड़ी थी। जी चाहता था, इनके पैरों के नीचे आँखें बिछा दूँ। मेरे धन्य भाग।
एकाएक मनोरमा ने झुककर निर्मला के पैरों पर शीश झुका दिया और पुलकित कँठ से बोली–माताजी धन्य भाग कि आपके दर्शन हुए। जीवन सफल हो गया।
निर्मला सारा शिष्टाचार भूल गई, बस, खड़ी रोती रही। मनोरमा के शील और विनय ने शिष्टाचार को तृण की भाँति मातृ-स्नेह की तरंग में बहा दिया।
इतने में मंगला आकर खड़ी हो गई। मनोरमा ने उसे गले से लगा लिया और स्नेह-कोमल स्वर में बोली–आज तुम्हें अपने साथ ले चलूँगी, दो-चार दिन तुम्हें मेरे साथ रहना पड़ेगा। हम दोनों साथ-साथ खेलेंगी। अकेले पड़े-पड़े मेरा जी घबराता है। तुमसे मिलने की मेरी बड़ी इच्छा थी।
निर्मला–मनोरमा, तुमने हमें धरती से उठाकर आकाश पर पहुँचा दिया। तुम्हारे शील स्वभाव का कहाँ तक बखान करूँ?
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