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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मनोरमा–माता के मुख से ये शब्द सुनकर मेरा हृदय गर्व से फूला नहीं समाता। मैं बचपन ही से मातृ-स्नेह से वंचित हो गई, पर आज मुझे ऐसा ज्ञात हो रहा है कि अपनी जननी के चरणों को स्पर्श कर रही हूँ। मुझे आज्ञा दीजिए कि जब कभी जी घबराए, तो आकर आपके स्नेह-कोमल चरणों में आश्रय लिया करूँ। कल बाबूजी आ जाएँगे। अवकाश मिला तो मैं भी आऊँगी, पर मैं किसी कारण से न आ सकूँ, तो आप कह दीजिएगा कि किसी बात की चिन्ता न करें, मेरे हृदय में उनके प्रति अब भी वही श्रद्धा और अनुराग है। ईश्वर ने चाहा तो मैं शीघ्र ही उनके लिए रियासत में कोई स्थान निकालूँगी। बड़ी दिल्लगी हुई। कई दिन हुए, लखनऊ के एक ताल्लुकेदार ने गवर्नर की दावत की थी। मैं भी राजा साहब के साथ दावत में गई। गवर्नर साहब शतरंज खेल रहे थे। मुझसे भी खेलने के लिए आग्रह किया। मुझे शतंरज खेलना तो आता नहीं, पर उनके आग्रह से बैठ गई। ऐसा संयोग हुआ कि मैंने ताबड़तोड़ उनको दो मातें दीं। तब आप झल्लाकर बोले–अबकी कुछ बाज़ी लगाकर खेलेंगे। क्या बदती हो? मैंने कहा–इसका निश्चय बाज़ी पूरी होने के बाद होगा। तीसरी बाज़ी शुरू हुई। अबकी वह खूब सँभलकर खेल रहे थे और मेरे कई मुहरे पीट लिए। मैंने समझा, अबकी मात हुई, लेकिन सहसा मुझे ऐसी चाल सूझ गई कि हाथ से जीती बाज़ी लौट पड़ी। मै तो समझती हूँ ईश्वर ने मेरी सहायता की। फिर तो उन्होंने लाख-लाख सिर पटका, उनके सारे मित्र ज़ोर मारते रहे, पर मात न रोक सके। सारे मुहरे धरे ही रह गए।

मैंने हँसकर कहा–बाज़ी मेरी हुई, अब जो कुछ मैं माँगूँ, वह आपको देना पड़ेगा।

उन्हें क्या ख़बर थी कि मैं क्या मागूँगी, हँसकर बोले–हाँ-हाँ, कब फिरता हूँ!

मैंने तीन वचन लेकर कहा–आप मेरे मास्टर साहब को बेकुसूर जेल में डाले हुए हैं, उन्हें छोड़ दीजिए।

यह सुनकर सभी सन्नाटें में आ गए, मगर कौल हार चुके थे और स्त्रियों के सामने ये ज़रा सज्जनता का स्वाँग भरते हैं, मज़बूर होकर गर्वनर साहब को वादा करना पड़ा, पर बार-बार पछताते थे और कहते थे, आपकी ज़िम्मेदारी पर छोड़ रहा हूँ। खैर, मुझे कल मालूम हुआ कि रिहाई का हुक्म हो गया है, और मुझे आशा है कि कल किसी वक़्त वह यहाँ आ जाएँगे।

निर्मला–आपने बड़ी दया की, नहीं तो मैं रोते-रोते मर जाती।

मनोरमा–रोने की क्या बात थी? माताओं को चाहिए कि अपने पुत्रों को साहसी और वीर बनाएँ। एक तो यहाँ लोग यों ही डरपोक होते हैं, उस पर घरवालों का प्रेम उनकी रही-सही हिम्मत भी हर लेता है। तो क्यों बहिन, मेरे यहाँ चलती हो! मगर नहीं, कल तो बाबूजी आएँगे, मैं किसी दूसरे दिन तुम्हारे लिए सवारी भेजूँगी।

निर्मला–जब आपकी इच्छा होगी, तभी भेज दूँगी।

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