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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मनोरमा–तुम क्यों नहीं बोलती, बहिन? समझती होगी कि रानी हैं, बड़ी बुद्धिमान और तेजस्वी होंगी। पहले रानी देवप्रिया को देखकर मैं भी यही सोचा करती थी, पर अब मालूम हुआ कि ऐश्वर्य से न बुद्धि बढ़ती है, न तेज़। रानी और बाँदी में कोई अन्तर नहीं होता।

यह कहकर उसने मंगला के गले में बाँहे डाल दीं और प्रेम से सने हुए शब्दों में बोली–देख लेना, हम तुम कैसे मज़े से गाती-बजाती हैं। बोलो, आओगी न?

मंगला ने माता की ओर देखा और इशारा पाकर बोली–जब आपकी इतनी कृपा है, तो क्यों न आऊँगी?

मनोरमा–कृपा और दया की बात करने के लिए मैं तुम्हें नहीं बुला रही हूँ। ऐसी बात सुनते-सुनते ऊब गई हूँ। सहेलियों की भाँति गाने-बजाने, हँसने-बोलने के लिए बुलाती हूँ। सारा घर आदमियों से भरा हुआ है; पर एक भी ऐसा नहीं, जिसके साथ बैठकर एक घड़ीभर हँसूँ-बोलूँ।

यह कहते-कहते उसने अपने गले से मोतियों का हार निकालकर मंगला के गले में डाल दिया और मुस्कुराकर बोली–देखो अम्माँ जी, यह हार इसे अच्छा लगता है न?

मुंशीजी बोले–ले मंगला, तूने तो पहली ही मुलाक़ात में मोतियों का हार मार लिया, और लोग मुहँ ही ताकते रह गए।

मनोरमा–माता-पिता लड़कियों को देते हैं, मुझे तो कुछ आपसे मिलना चाहिए। मंगला तो मेरी छोटी बहिन है। जी चाहता है, इसी वक़्त लेती चलूँ। इसकी सूरत तो बाबूजी से बिल्कुल मिलती है, मरदों के कपड़े पहना दिए जाएँ, तो पहचानना मुश्किल हो जाए। चलो मंगला, कल हम दोनों आ जाएँगी।

निर्मला–कल ही लेती जाइएगा।

मनोरमा–मैं समझ गई। आप सोचती होंगी, ये कपड़े पहने क्या जाएगी। तो क्या वहाँ किसी बेगाने घर जा रही है? क्या वहाँ साड़ियाँ न मिलेंगी?

उसने मंगला का हाथ पकड़ लिया और उसे लिए द्वार की ओर चली। मंगला हिचकिचा रही थी; पर कुछ कह न सकती थी।

जब मोटर चली गई तो निर्मला ने कहा–साक्षात् देवी है।

मुंशी–लल्लू पर इतना प्रेम करती है कि, वह चाहता, तो इससे विवाह कर लेता। धर्म ही खोना था, तो कुछ स्वार्थ से खोता। मीठा हो, तो जूठा भी अच्छा, नहीं तो कहाँ जाकर गिरा उस कंगली पर, जिसके माँ-बाप का भी पता नहीं।

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