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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
निर्मला–(व्यंग्य से) वाह-वाह! क्या लाख रुपये की बात कही है। ऐसी बहू घर में आ जाए, लाला, तो एक दिन न चले। फूल सूँघने में ही अच्छा लगता है, खाने में नहीं! ग़रीबों का निबाह ग़रीबों ही में होता है।
मुंशी–प्रेम बड़ों-बड़ों का सिर नीचा कर देता है।
निर्मला–न जी जलाओ। बे बात-की-बात करते हो। तुम्हारे लल्लू ऐसे ही तो बड़े खूबसूरत हैं। सिर में एक बाल न रहता। ऐसी औरतों को प्रसन्न रखने के लिए धन चाहिए। प्रभुता पर मरनेवाली औरत है।
दस बज रहे थे। मुंशीजी भोजन करने बैठे। मारे खुशी के फूले न समाते थे। लल्लू को रियासत में कोई अच्छी जगह मिल जाएगी, फिर पाँचों अँगुलियाँ घी में हैं। अब मुसीबत के दिन गए। मारे खुशी के खाया भी नहीं गया। जल्दी से दो-चार कौर खाकर बाहर भागे और अपने इष्ट-मित्रों से चक्रधर के स्वागत के विषय में आधी रात तक बातें करते रहे। निश्चय किया गया कि प्रात:काल शहर में नोटिस बाँटी जाए और सेवा-समिति के सेवक स्टेशन पर बैंड बजाते हुए उनका स्वागत करें।
लेकिन निर्मला उदास थी। मनोरमा से उसे न जाने क्यों एक प्रकार का भय हो रहा था।
२३
राजा विशालसिंह की मनोवृत्तियाँ अब एक ही लक्ष्य पर केन्द्रित हो गई थीं, और, वह लक्ष्य था–मनोरमा। वह उपासक थे, मनोरमा उपास्य थी; वह सैनिक थे, मनोरमा सेनापति थीं; वह गेंद थे, मनोरमा खिलाड़ी थी। मनोरमा का उनके मन पर, उनकी आत्मा पर सम्पूर्ण आधिपत्य था। वह अब मनोरमा ही की आँखों से देखते, मनोरमा ही के कानों से सुनते और मनोरमा ही के विचार से सोचते थे। उनका प्रेम सम्पूर्ण आत्मसमर्पण था। मनोरमा ही की इच्छा अब उनकी इच्छा है, मनोरमा ही के विचार अब उनके विचार हैं! उनके राज्य विस्तार के मंसूबे ग़ायब हो गए। धन से उनको कितना प्रेम था! वह इतनी किफ़ायत से राज्य प्रबन्ध करना चाहते थे कि थोड़े दिनों में रियासत के पास एक विराट् कोष हो जाए। अब वह हौसला नहीं रहा। मनोरमा के हाथों जो ख़र्च होता है, वह श्रेय है। अनुराग चित्त की वृत्तियों की कितनी कायापल्ट कर सकता है।
अब तक राजा विशालसिंह का जिन स्त्रियों से साबिका पड़ा था, वे ईर्ष्या, द्वेष, माया-मोह और राग-रंग में लिप्त थीं। मनोरमा उन सबों से भिन्न थी। उसमें सांसारिकता का लेश भी न था। न उसे वस्त्राभूषण से प्रेम, न किसी से ईर्ष्या या द्वेष। ऐसा प्रतीत होता था कि वह स्वर्गलोक की देवी है। परोपकार में उसका ऐसा सच्चा अनुराग था कि पग-पग पर राजा साहब को अपनी लघुता और क्षुद्रता का अनुभव होता था और उस पर उनकी श्रद्धा और भी दृढ़ होती जाती थी। रियासत के मामलों या निज के व्यवहारों में जब वह कोई ऐसी बात कर बैठते, जिसमें स्वार्थ और अधिकार के दुरुपयोग या अनम्रता की गंध आती हो, तो उन्हें यह जानने में देर न लगती थी कि मनोरमा की भुकुटी चढ़ी हुई है और उसने भोजन नहीं किया। फिर उन्हें उस बात के दुहराने का साहस न होता था। मनोरमा की निर्मल कीर्ति अज्ञात रूप से उन्हें परलोक की ओर खींच लिये जाती थी। उसके समीप आते ही उनकी वासना लुप्त और धार्मिक कल्पना सजग हो जाती थी। उसकी बुद्धि-प्रतिभा पर उन्हें इतना अटल विश्वास हो जाता था कि वह जो कुछ करती थी, उन्हें सर्वोचित और श्रेयस्कर जान पड़ता था। वह अगर उनके देखते हुए घर में आग लगा देती, तो भी वह उसे निर्दोष ही समझते। उसमें भी उन्हें शुभ और कल्याण ही की सुवर्ण रेखा दिखाई देती। रियासत में असामियों से कर के नाम पर न जाने कितनी बेगार ली जाती थी, वह सब रानी के हुक्म से बन्द कर दी गई और रियासत को लाखों रुपयों की क्षति हुई; पर राजा साहब ने ज़रा हस्तक्षेप नहीं किया। पहले ज़िले के हुक्काम रियासत में तशरीफ़ लाते, तो रियासत में खलबली मच जाती थी, कर्मचारी सारे काम छोड़कर हुक्काम को रसद पहुँचाने में मुस्तैद हो जाते थे। हाकिम की निगाह तिरछी देखकर राजा काँप जाते थे। पर अब किसी को, चाहे वह सूबे का लाट ही क्यों न हो, नियमों के विरुद्ध एक कदम रखने की भी हिम्मत न पड़ती थी। जितनी धाँधलियाँ राज्यप्रथा के नाम पर सदैव से होती आती थीं, वह एक-एक करके उठती जाती थीं; पर राजा साहब को कोई शंका न थी।
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