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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
राजा साहब की चिर संचित पत्र-लालसा भी इस प्रेम-तरंग में मग्न हो गई मनोरमा पर उन्होंने अपनी यह महान् अभिलाषा भी अर्पित कर दी। मनोरमा को पाकर उन्हें किसी वस्तु की इच्छा ही न रही। उनके सामने और सभी चीज़ें तुच्छ हो गईं। एक दिन, केवल एक दिन उन्होंने मनोरमा से कहा था–मुझे अब केवल एक इच्छा और है। ईश्वर मुझे एक पुत्र प्रदान कर देता, तो मेरे सारे मनोरथ पूरे हो जाते। मनोरमा ने उस समय जिन कोमल शब्दों में उन्हें सांत्वना दी थी, वे अब तक कानों में गूँज रहे थे–नाथ, मनुष्य का उद्धार पुत्र से नहीं, अपने कर्मों से होता है। यश और कीर्ति भी कर्मों से ही प्राप्त होती है। संतान वह सबसे कठिन परीक्षा है, जो ईश्वर ने मनुष्य को परखने के लिए गढ़ी है। बड़ी-बड़ी आत्माएँ, जो और सभी परीक्षाओं में सफल हो जाती हैं, यहाँ ठोकर खाकर गिर पड़ती हैं। सुख के मार्ग में इससे बड़ी और कोई बाधा नहीं है। जब इच्छा दु:ख का मूल है, तो सबसे बड़े दु:ख का मूल क्यों न होगी? ये बचन मनोरमा के मुख से निकलकर अमर हो गए थे।
सबसे विचित्र बात यह थी कि राजा साहब की विषय-वासना सम्पूर्णताः लोप हो गयी थी। एकान्त में बैठे हुए वह मन में भाँति-भाँति की मृदु कल्पनाएँ किया करते, लेकिन मनोरमा के सम्मुख आते ही उन पर श्रद्धा का अनुराग छा जाता, मानो किसी देव-मन्दिर में आ गए हों। मनोरमा उनका सम्मान करती, उन्हें देखते ही खिल जाती, उनसे मीठी-मीठी बातें करती, उन्हें अपने हाथों से स्वादिष्ट पदार्थ बनाकर खिलाती, उन्हें पंखा झलती। उनकी तृप्ति के लिए वह इतना ही काफ़ी समझती थी। कविता में और सब रस थे, केवल श्रृंगार रस न था। वह बाँकी चितवन, जो मन को हर लेती है, वह हाव-भाव, जो चित्त को उद्दीप्त कर देता है, यहाँ कहाँ? सागर के स्वच्छ निर्मल जल में तारे नाचते हैं, चाँद थिरकता है, लहरे गाती हैं। वहाँ देवता संध्योपासना करते हैं, देवियाँ स्नान करती हैं, पर कोई मैले कपड़े नहीं धोता। संगमरमर की ज़मीन पर थूकने की कुरुचि किसमें होगी! आत्मा को स्वयं ऐसे घृणास्पद व्यवहार से संकोच होता है।
इसी भाँति छ: महीने गुज़र गए।
प्रभात का समय था। प्रकृति फागुन के शीतल, उल्लासमय समीर सागर में निमम्न हो रही थी। बाग़ में नव विकसित पुष्प, किरणों के सुनहरे हार पहने मुस्कुरा रहे थे। आम के सुगन्धित नव पल्लवों में कोयल अपनी मधुर तान अलाप रही थी। और मनोरमा आईने के सामने खड़ी अपनी केशराशि का जाल सज़ा रही थी। आज बहुत दिनों के बाद उसने अपने दिव्य, रत्नजटित आभूषण निकाले हैं, बहुत दिनों के बाद अपने वस्त्रों में इत्र बसाए हैं! आज उसका एक-एक अंग मनोल्लास से खिला हुआ है। आज चक्रधर जेल से छूटकर आएँगे और वह उनका स्वागत करने जा रही है।
यों बन-ठनकर मनोरमा ने बगलवाले कमरे का पर्दा उठाया और दबे पाँव अन्दर गयी। मंगला अभी तक पलंग पर पड़ी मीठी-मीठी नींद ले रही थी। उसके लम्बे-लम्बे केश तकिए पर बिखरे पड़े थे। दोनों सखियाँ आधी रात तक बातें करती रही थीं। जब मंगला ऊँघ-ऊँघकर गिरने लगी थी, तो मनोरमा उसे सुलाकर अपने कमरे में चली गयी थी। मंगला अभी तक पड़ी सो रही थी, मनोरमा की पलक तक न झपकी, अपने कल्पना-कुंज में विचरते हुए रात काट दी। मंगला को इतनी देर तक सोते देखकर उसने आहिस्ता से पुकारा–मंगला, कब तक सोएगी? देख तो, कितना दिन चढ़ आया? जब पुकारने से मंगला न जागी, तो उसका कन्धा हिलाकर कहा–क्या दिन-भर सोती रहेगी?
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