|
उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
320 पाठक हैं |
||||||||
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
एक युवक–हम लोग लाश को क्रिया-क्रम के लिए ले जाना चाहते हैं।
ख्वाज़ा–ले जाओ भई, ले जाओ, मैं भी साथ चलूँगा। मेरे कन्धा देने में कोई हरज है! इतनी रियायत तो मेरे साथ करनी ही पड़ेगी। मैं पहले मरता तो यशोदा सिर पर खाक उड़ाता हुआ मेरी मज़ार तक ज़रूर जाता।
युवक–अहिल्या को भी लोग उठा ले गये। माताजी आपसे...
ख्वाज़ा–क्या, अहिल्या! मेरी अहिल्या को! कब?
युवक–आज ही! घर में आग लगाने से पहले।
ख्वाज़ा–कलामे मज़ीद की कसम, जब तक अहिल्या का पता न लगा लूँगा, मुझे दाना-पानी हराम है। तुम लोग लाश ले जाओ, मैं अभी आता हूँ। सारे शहर की खाक छान डालूँगा, एक-एक घर में जाकर देखूँगा, अगर किसी बेदीन बदमाश ने मार नहीं डाला तो ज़रूर खोज निकालूँगा। हाय मेरी बच्ची! उसे मैंने मेले में पाया था! खड़ी रो रही थी! कैसी भोली-भोली, प्यारी-प्यारी बच्ची थी! मैंने उसे छाती से लगा लिया था और लाकर भाभी की गोद में डाल दिया था। कितनी बातमीज़, बाशऊर हसीन लड़की थी। तुम लोग लाश को ले जाओ, मैं शहर का चक्कर लगाता हुआ जमुना किनारे आऊँगा। भाभी से मेरी तरफ़ से अर्ज कर देना, मुझसे मलाल न रखें। यशोदा नहीं है लेकिन महमूद है। जब तक उसके दम में दम है, उन्हें कोई तक़लीफ न होगी। कह देना, महमूद या तो अहिल्या को खोज निकालेगा, या मुँह में कालिख लगाकर डूब मरेगा।
यह कहकर ख्वाज़ा साहब उठ खड़े हुए, लकड़ी उठायी और बाहर निकल गये।
२६
चक्रधर ने उस दिन लौटते ही पिता से आगरे जाने की अनुमति माँगी। मनोरमा ने उनके मर्मस्थल में जो आग लगा दी थी, वह आगरे ही में अहिल्या के सरल, स्निग्ध स्नेह की शीतल छाया में शान्त हो सकती थी। उन्हें अपने ऊपर विश्वास न था। वह ज़िन्दगी-भर मनोरमा को देखा करते और मन में कोई बात न आतीं; लेकिन मनोरमा ने पुरानी स्मृतियों को जगाकर उनके अन्तस्तल में तृष्णा, उत्सुकता और लालसा को जागृत कर दिया था। इसलिए अब वह मन को ऐसी दृढ़ रस्सी से बाँधना चाहते थे कि वह हिल भी न सके। वह अहिल्या की शरण लेना चाहते थे।
मुंशीजी ने ज़रा त्योरी चढ़ाकर कहा–तुम्हारे सिर अब तक वह नशा सवार है? यों तुम्हारी इच्छा सैर करने की हो, तो रुपये-पैसे की कमी नहीं; लेकिन तुम्हें वादा करना पड़ेगा कि तुम मुंशी यशोदानन्दन से न मिलोगे।
चक्रधर–मैं उनसे मिलने ही तो जा रहा हूँ।
|
|||||

i 










