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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
अगर चक्रधर को अपना ही खर्च सँभालना होता, तो शायद उन्हें बहुत कष्ट न होता, क्योंकि उनके लेख बहुत अच्छे होते थे और दो-तीन समाचार-पत्रों में लिखकर वह अपनी ज़रूरत-भर को पैदा कर लेते थे। पर मुंशी वज्रधर के तकाजों के मारे उनकी नाक में दम था। मनोरमा जगदीशपुर जाकर संसार से विरक्त-सी हो गई थी। न कहीं आती, न कहीं जाती और न रियासत के किसी मामले में बोलती। धन से उसे घृणा ही हो गई थी। सब कुछ छोड़कर वह अपनी कुटी में जा बैठी थी, मानो कोई संन्यासिनी हो, इसलिए अब मुंशीजी को केवल वेतन मिलता था और उसमें उनका गुज़र न होता था। चक्रधर को बार-बार तंग करते, और उन्हें विवश होकर पिता की सहायता करनी पड़ती।
अगहन का महीना था। खासी सर्दी पड़ रही थी, मगर अभी तक चक्रधर जाड़े के कपड़े न बनवा पाए थे। अहिल्या के पास तो पुराने कपड़े थे, पर चक्रधर के पुराने कपड़े मुंशीजी के मारे बचने ही न पाते। या तो खुद पहन डालते, या किसी को दे देते। वह इसी फ़िक्र में थे कि कहीं से रुपये आ जायें, तो एक कम्बल ले लूँ। आज बड़े इन्तज़ार के बाद लखनऊ से एक मासिक पत्र के कार्यालय से पच्चीस रुपये का मनीऑर्डर आया था और वह अहिल्या के पास बैठे हुए कपड़ों का प्रोग्राम बना रहे थे।
अहिल्या ने कहा–मुझे अभी कपड़ों की ज़रूरत नहीं है। तुम अपने लिए एक अच्छा-सा कम्बल कोई पन्द्रह रुपये में ले लो। बाकी रुपयों में अपने लिए ऊनी कुर्ता और जूता ले लो। जूता बिलकुल फट गया है।
चक्रधर–पन्द्रह रुपए का कम्बल क्या होगा? मेरे लायक तीन-चार रुपए में अच्छा कम्बल मिल जाएगा। बाकी रुपयों से तुम्हारे लिए एक अलवान ला देता हूँ। सबेरे उठकर तुम्हें कामकाज करना पड़ता है, कहीं सर्दी खा जाओ, तो मुश्किल पड़े। ऊनी कुर्ते की ज़रूरत नहीं। हाँ, तुम एक सलूका बनवा लो। मैं तगड़ा आदमी हूँ ठंड सह सकता हूँ।
अहिल्या–खूब तगड़े हो, क्या कहना! ज़रा आइने में जाकर सूरत तो देखो। जब से यहाँ आये हो, आधी देह भी नहीं रही। मैं जानती कि यहाँ आकर तुम्हारी यह दशा हो जाएगी, तो कभी घर से कदम न निकालती। मुझसे लोग छूत माना करते, क्या परवाह थी? तुम तो आराम से रहते थे, अलवान-सवलान न लूँगी, तुम आज एक कम्बल लाये; नहीं तो मैं सच कहती हूँ, यदि बहुत जिद करोगे तो मैं आगरे चली जाऊँगी।
चक्रधर–तुम्हारी यही जिद तो मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं कई साल से अपने को इसी ढंग के जीवन के लिए साध रहा हूँ। मैं दुबला हूँ तो क्या, गर्मी-सर्दी खूब सह सकता हूँ। तुम्हें यहाँ नौ-दस महीने हुए, बताओ मेरे सिर में एक दिन भी दर्द हुआ? हाँ, तुम्हें कपड़े की ज़रूरत है। तुम अभी ले लो, अब की रुपये आएँगे, तो मैं भी बनवा लूँगा।
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