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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
इतने में डाकिये ने पुकारा। चक्रधर ने जाकर ख़त ले लिया और उसे पढ़ते हुए अन्दर आये। अहिल्या ने पूछा–लालाजी का ख़त है? लोग अच्छी तरह हैं न?
चक्रधर–मेरे आते ही न जाने उन लोगों पर क्या साढ़ेसाती सवार हो गई है कि जब देखो एक न एक विपत्ति सवार ही रहती है। अभी मंगला बीमार थी। अब अम्माँ बीमार है। बाबूजी को खाँसी आ रही है। रानी साहब के यहाँ से अब वजीफ़ा नहीं मिलता है। लिखा है कि इस वक़्त ४० रु. अवश्य भेजो।
अहिल्या–क्या अम्माँजी बहुत बीमार हैं?
चक्रधर–हाँ, लिखा तो है।
अहिल्या–तो जाकर देख ही क्यों न आओ?
चक्रधर–तुम्हें अकेली छोड़कर?
अहिल्या–डर क्या है?
चक्रधर–चलो। रात को कोई आकर लूट ले, तो चिल्ला भी न सको। कितनी बार सोचा कि चलकर अम्माँ को देख आऊँ, पर कभी इतने रुपये ही नहीं मिलते अब बताओ इन्हें रुपये कहाँ से भेजूँ?
अहिल्या–तुम्हीं सोचो, जो वैरागी बनकर बैठे हो। तुम्हें बैरागी बनना था, तो नाहक गृहस्थी के जंजाल में फंसे। मुझसे विवाह करके तुम सचमुच बला में फँस गए। मैं न होती, तो क्यों तुम यहाँ आते और क्यों यह दशा होती? सबसे अच्छा है, तुम मुझे अम्माँ के पास पहुँचा दो। अब वह बेचारी अकेली रो-रोकर दिन काट रही होगी। जाने से निहाल हो जाएँगी!
चक्रधर–हम और तुम दोनों क्यों न चले चलें?
अहिल्या–जी नहीं, दया कीजिए। आप वहाँ भी मेरे प्राण खाएँगे और बेचारी अम्माँजी को रुलाएँगे। मैं झूठों भी लिख दूँ कि अम्माँ जी, मैं तकलीफ़ में हूँ, तो तुरन्त किसी को भेजकर मुझे बुला लें।
चक्रधर–मुझे बाबूजी पर बड़ा क्रोध आता है व्यर्थ मुझे तंग करते हैं। अम्माँ की बीमारी तो बहाना है, सरासर बहाना।
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