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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
अहिल्या–यह बहाना हो या सच हो, ये पच्चीस रुपये भेज़ दो। बाकी के लिए लिख दो, कोई फ़िक्र करके जल्दी ही भेज दूँगा। तुम्हारी तक़दीर में इस साल जड़ावल नहीं लिखा है।
चक्रधर–लिखे देता हूँ, मैं खुद तंग हूँ, आपके पास रुपये कहाँ से भेजूँ ?
अहिल्या–ऐ हटो भी, इतने रुपयों के लिए मुँह चुराते हो। भला, वह अपने दिल में क्या कहेंगे! ये रुपये चुपके से भेज दो।
चक्रधर कुछ देर तक तो मौन धारण किए बैठे रहे, मानो किसी गहरी चिन्ता में हों। एक क्षण के बाद बोले–किसी से कर्ज़ लेना पड़ेगा, और क्या।
अहिल्या–नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, क़र्ज मत लेना। इससे तो इनकार कर देना ही अच्छा है।
चक्रधर–किसी ऐसे महाजन से लूँगा, जो तकादे न करेगा। अदा करना बिलकुल मेरी इच्छा पर होगा।
अहिल्या–ऐसा कौन महाजन है, भई? यहीं रहता है? कोई दोस्त होगा? दोस्त से तो क़र्ज़ लेना ही न चाहिए। इससे तो महाजन कहीं अच्छा। कौन है, ज़रा उसका नाम तो सुनूँ?
चक्रधर–अजी, एक पुराना दोस्त है, जिसने मुझसे कह रखा है कि तुम्हें जब रुपये की कोई ऐसी ज़रूरत आ पड़े, जो टाले न टल सके, तो तुम हमसे माँग लिया करना, फिर जब चाहे दे देना।
अहिल्या–कौन है, बताओ, तुम्हें मेरी कसम।
चक्रधर–तुमने कसम रखा दी, यह बड़ी मुश्किल आ पड़ी। वह मित्र रानी मनोरमा हैं। उन्होंने मुझे घर से चलते-चलते एक मोटा-सा बैग दिया था। मैंने उस वक़्त तो खोला नहीं; गाड़ी में बैठकर खोला, तो उसमें पाँच हज़ार रुपयों के नोट निकले। सब रुपये ज्यों-के-त्यों रखे हुए हैं।
अहिल्या–और तो कभी नहीं निकाला?
चक्रधर–कभी नहीं, यह पहला मौक़ा है।
अहिल्या–तो भूलकर भी न निकालना।
चक्रधर–लालाजी जिंदा न छोड़ेंगे, समझ लो।
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