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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


अहिल्या–साफ़ कह दो, मैं खाली हाथ हूँ बस। रानीजी की अमानत किसी मौके से लौटानी होगी। अमीरों का अहसान कभी न लेना चाहिए, कभी-कभी उसके बदले में अपनी आत्मा तक बेचनी पड़ती है। रानीजी तो हमें बिलकुल भूल ही गईं। एक ख़त न लिखा।

चक्रधर–आजकल उनको अपने घर के झगड़ों ही से फुरसत न मिलती होगी। राजा साहब से विवाह करके अपना जीवन नष्ट कर दिया।

अहिल्या–हृदय बड़ा उदार है।

चक्रधर–उदार! यह क्यों नहीं कहती कि अगर उनकी मदद न हो, तो प्रान्त की कितनी ही सेवा-संस्थाओं का अन्त हो जाए। प्रान्त में यदि ऐसे लगभग दस प्राणी हो जाएँ, तो बड़ा काम हो जाए।

अहिल्या–ये रुपये लालाजी के पास भेज दो, तब तक और सर्दी का मज़ा उठा लो।

अहिल्या उस दिन बड़ी रात तक चिन्ता में पड़ी रही कि जड़ावल का क्या प्रबंध हो। चक्रधर ने सेवा-कार्य का इतना भारी बोझ अपने सिर ले लिया था कि उनसे अधिक धन कमाने की आशा न की जा सकती थी। बड़ी मुश्किल से रात को थोड़ा-सा समय निकालकर बेचारे कुछ लिख-पढ़ लेते थे। धन की उन्हें चेष्टा ही न थी। इसे वह केवल जीवन का उपाय समझते थे। अधिक धन कमाने के लिए उन्हें मज़बूर करना उन पर अत्याचार करना था। उसने सोचना शुरू किया, मैं कुछ काम कर सकती हूँ या नहीं। सिलाई और बूटे-कसीदे का काम वह खूब कर सकती थी; पर चक्रधर को यह कब मंजूर हो सकता था कि वह पैसे के लिए यह काम करे? एक दिन उसने एक मासिक पत्रिका में अपनी एक सहेली का लेख देखा। दोनों आगरे में साथ-साथ पढ़ती थीं। अहिल्या हमेशा उससे अच्छा नम्बर पाती थी। यह लेख पढ़ते ही अहिल्या की वही दशा हुई, जो किसी असील घोड़े को चाबुक पड़ने पर होती है। वह कलम लेकर बैठ गई और उसी विषय की आलोचना करने लगी, जिस पर उसकी सहेली का लेख था। वह इतनी तेज़ी से लिख रही थी, मानो भागते हुए विचारों को समेट रही हो। शब्द और वाक्य आप-ही-आप निकलते चले आते थे। घंटे में उसने चार-पाँच पृष्ठ लिख डाले। जब उसने उसे दुहराया, तो उसे ऐसा जान पड़ा कि मेरा लेख सहेली के लेख से अच्छा है। फिर भी सम्पादक के पास भेजते हुए उसका जी डरता था कि कहीं अस्वीकृत न हो जाए। उसने दोनों लेखों को दी-तीन बार मिलाया और अंत को तीसरे दिन भेज ही दिया। तीसरे दिन जवाब आया। लेख स्वीकृत हो गया था, फिर भेजने की प्रार्थना की थी और शीघ्र ही पुरस्कार भेजने का वादा था। तीसरे दिन डाकिये ने एक रजिस्ट्री चिट्ठी लाकर दी। अहिल्या ने खोला तो १०० रु. का नोट था। अहिल्या फूली न समायी। उसे इस बात का संतोषमय गर्व हुआ कि गृहस्थी में मैं भी मदद कर सकती हूँ। उसी दिन उसने एक दूसरा लेख लिखना शुरू किया; पर अबकी ज़रा देर लगी। तीसरे दिन भेज दिया गया।

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