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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
पूस का महीना लग गया था। ज़ोरों की सर्दी पड़ने लगी। स्नान करते समय ऐसा मालूम होता था कि पानी काट खाएगा; पर अभी तक चक्रधर जड़ावल न बनवा सके। एक दिन बादल हो आये और ठंडी हवा चलने लगी। चक्रधर १० बजे रात को अछूतों की किसी सभा से लौट रहे थे, तो मारे सर्दी के कलेजा काँप उठा, चाल तेज़ की; पर सर्दी कम न हुई। तब घर के समीप पहुँचकर थक गए। सोचने लगे। अभी से यह हाल है भगवान, तो रात कैसे कटेगी? और मैं तो किसी तरह काट भी लूँगा, अहिल्या का क्या हाल होगा? इस बेचारी को मेरे कारण बड़ा कष्ट हो रहा है। सच पूछो, तो मेरे साथ विवाह करना इसके लिए कठिन तपस्या हो गई। कल सबसे पहले कपड़ों की फिक्र करूँगा। यह सोचते हुए वह घर आये तो देखा कि अहिल्या अँगीठी में कोयले भरे ताप रही है। आज वह बहुत प्रसन्न दिखाई देती थी। रात को वे रोज़ रोटी और कोई साग खाया करते थे। आज अहिल्या ने पूरियाँ पकायी थीं, और सालन भी कई प्रकार का था। खाने में बड़ा मज़ा आया। भोजन करके लेटे तो दिखाई दिया, चारपाई पर एक बहुत अच्छा कम्बल पड़ा हुआ है। विस्मित होकर पूछा–यह कम्बल कहाँ था?
अहिल्या ने मुस्कुरा कर कहा–मेरे पास ही रखा था। अच्छा है कि नहीं?
चक्रधर–तुम्हारे पास कम्बल कहाँ था? सच बताओ, कहाँ मिला? बीस रुपये से कम का न होगा।
अहिल्या–तुम मानते ही नहीं, तो क्या करूँ। अच्छा तुम्हीं बताओ कहाँ था?
चक्रधर–मोल लिया होगा। सच बताओ, रुपये कहाँ थे?
अहिल्या–तुम्हें आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से?
चक्रधर–जब तक यह न मालूम हो जाए कि आम कहाँ से आये, तब तक मैं उसमें हाथ भी न लगाऊँ।
अहिल्या–मैंने कुछ रुपये बचा रखे थे। आज कम्बल मँगवा लिया।
चक्रधर–मैंने तुम्हें इतने रुपये कब दिये कि ख़र्च करके बच जाते? कितने का है?
अहिल्या–पच्चीस रुपये का। मैं थोड़ा-थोड़ा बचाती गई थी।
चक्रधर–मैं यह मानने का नहीं। बताओ, रुपये कहां मिले?
अहिल्या–बता ही दूँ। अब की मैंने ‘आर्य जगत्’ को दो लेख भेजे थे। उसी के पुरस्कार के तीस रुपये मिले आजकल एक और लिख रही हूँ।
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