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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


अहिल्या ने समझा था, चक्रधर यह सुनते ही खुशी से उछल पड़ेंगे और प्रेम से मुझे गले लगा लेंगे; लेकिन यह आशा पूरी न हुई। चक्रधर ने उदासीन भाव से पूछा–‘कहाँ है लेख, ‘ज़रा आर्यजगत्’ देखूँ?

अहिल्या ने दोनों ‘अंक’ लाकर उनको दे दिये और लज़ाते हुए बोली–कुछ है नहीं, ऊटपटाँग जो जी में आया, लिख डाला।

चक्रधर ने सरसरी निग़ाह से लेखों को देखा। ऐसी सुन्दर भाषा वह खुद न लिख सकते थे। विचार भी बहुत गम्भीर और गहरे थे। मगर अहिल्या ने खुद न कहा होता तो वह लेख पर उसका नाम देखकर भी यही समझते कि इस नाम की कोई दूसरी महिला होगी। उन्हें कभी ख़याल ही न हो सकता था कि अहिल्या इतनी विचारशील है; मगर यह जानकर भी वह खुश नहीं हुए। उनके अहंकार को धक्का-सा लगा। उनके मन में गृहस्वामी होने का जो गर्व अलक्षित रूप से बैठा हुआ था, वह चूर-चूर हो गया। वह अज्ञात भाव से बुद्धि में, विद्या में एवं व्यवहारिक ज्ञान में अपने को अहिल्या से ऊँचा समझते थे। रुपये कमाना उनका काम था। यह अधिकार उनके हाथ से छिन गया। विमन होकर बोले–तुम्हारे लेख बहुत अच्छे हैं, और पहली ही कोशिश में तुम्हें पुरस्कार भी मिल गया, यह और खुशी की बात है; लेकिन मुझे तो कम्बल की ज़रूरत न थी। कम-से-कम मैं इतना कीमती कम्बल न चाहता था; इसे तुम्हीं ओढ़ो। आख़िर तुम्हारे पास तो वही एक पुरानी चादर है। मैं अपने लिए दूसरा कम्बल ले लूँगा।

अहिल्या समझ गई कि यह बात इन्हें बुरी लगी। बोली–मैंने पुरस्कार के इरादे से तो लेख न लिखे थे। अपनी एक सहेली का लेख पढ़कर मुझे भी दो-चार बातें सूझ गईं। लिख डालीं। अगर तुम्हारी इच्छा नहीं, तो अब न लिखूँगी।

चक्रधर–नहीं, नहीं; मैं तुम्हें लिखने को मना नहीं करता। तुम शौक़ से लिखो; मगर मेरे लिए तुम्हें यह कष्ट उठाने की ज़रूरत नहीं। मुझे ऐश करना होता, तो सेवा-क्षेत्र में आता ही क्यों? मैं सब सोच-समझकर इधर आया हूँ; मगर अब देख रहा हूँ कि ‘माया और राम’ दोनों साथ नहीं मिलते। मुझे राम को त्यागकर माया की उपासना करनी पड़ेगी।

अहिल्या ने कातर भाव से कहा–मैंने तो तुमसे किसी बात की शिकायत नहीं की। अगर तुम जो हो, वह न होकर धनी होते, तो शायद मैं अब तक क्वाँरी ही रहती। धन की मुझे लालसा न तब थी, न अब है। तुम जैसा रत्न पाकर अगर मैं धन के लिए रोऊँ, तो मुझसे बढ़कर अभागिनी कोई संसार में न होगी। तुम्हारी तपस्या में योग देना मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ। मैंने केवल यह सोचा कि जब मैंने मेहनत की है तो उसकी मज़दूरी ले लेने में क्या हर्ज़ है। यह कम्बल तो कोई शाल नहीं है, जिसे ओढ़ने से संकोच हो। मेरे लिए चादर काफ़ी है। तुम्हें जब रुपये मिलें तो मेरे लिए लिहाफ़ बनवा देना।

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