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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


कम्बल रात भर ज़्य़ों-का-त्यों तह किया हुआ पड़ा रहा। सर्दी के मारे चक्रधर को नींद न आती थी; पर कम्बल को छुआ तक नहीं। उसका एक-एक रोयाँ सर्प की भाँति काटने दौड़ता था। एक बार उन्होंने अहिल्या की ओर देखा। वह हाथ-पाँव सिकोड़े, चादर सिर से ओढ़े गठरी की तरह पड़ी हुई थी; पर उन्होंने उसे भी वह कम्बल न ओढ़ाया। उनका स्नेह-करुण हृदय रो पड़ा। ऐसा मालूम होता था। मानो कोई फूल तुज़ार से मुरझा गया हो। उनकी अंतरात्मा सहस्रों जिह्वाओं से उनका तिरस्कार करने लगी। समस्त संसार उन्हें धिक्कारता हुआ जान पड़ा–तेरी लोक-सेवा केवल भ्रम है, कोरा प्रमाद है। जब तू उस रमणी की रक्षा नहीं कर सकता, जो तुझ पर अपने प्राण तक अर्पण कर सकती है, तो तू जनता का उपकार क्या करेगा? त्याग और भोग में दिशाओं का अंतर है। चक्रधर उन्मत्तों की भाँति चारों ओर देखने लगे कि कोई ऐसी चीज़ मिले जो इसे ओढ़ा सकूँ, लेकिन पुरानी धोतियों के सिवा उन्हें और कोई चीज़ न नज़र आयी। उन्हें इस समय मर्म-वेदना हो रही थी। अपना व्रत और संयम, अपना समस्त जीवन शुष्क और निरर्थक जान पड़ता था। जिस दरिद्रता का उन्होंने सदैव आह्वान किया था, वह इस समय भयंकर शाप की भाँति उन्हें भयभीत कर रही थी। जिस रमणी-रत्न की ज्योति से रनिवास में उजाला हो जाता था, उसको मेरे हाथों यह यन्त्रणा मिल रही है। सहसा अहिल्या ने आँखें खोल दीं और बोली–तुम खड़े क्या कर रहे हो? मैं अभी स्वप्न देख रही थी कि कोई पिशाच मुझे नदी के शीतल जल में डुबाए देता है। अभी तक छाती धड़क रही है।

चक्रधर ने ग्लानित होकर कहा–वह पिशाच मैं ही हूँ, अहिल्या! मेरे ही हाथों तुम्हें यह कष्ट मिल रहा है।

अहिल्या ने पति का हाथ पकड़कर चारपाई पर सुला दिया और वही कम्बल ओढ़ाकर बोली–तुम मेरे देवता हो, जिसने मुझे मझधार से निकाला है। पिशाच मेरा मन है, जो मुझे डुबाने की चेष्टा कर रहा है।

इतने में पड़ोस के एक मुर्गे ने बाँग दी। अहिल्या ने किवाड़ खोलकर देखा, तो प्रभात-कुसुम खिल रहा था। चक्रधर को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी रात कैसे कट गई।

आज वह नाश्ता करते ही कहीं बाहर न गए; बल्कि अपने कमरे में जाकर कुछ लिखते-पढ़ते रहे। शाम को उन्हें कुमार-सभा में एक वक्तृता देनी थी। विषय था ‘समाज सेवा’। इस विषय को छोड़कर वह पूरे घंटे भर कर ब्रह्मचर्य की महिमा गाते रहे। सात बजते-बजते वह फिर लौट आये और दस बजे तक लिखते रहे आज से यही उनका नियम हो गया। नौकरी तो वह न कर सकते थे। चित्त को इससे घृणा होती थी; लेकिन अधिकांश समय पुस्तकें और लेख लिखने में बिताते। उनकी विद्या और बुद्धि अब सेवा के अधीन नहीं, स्वार्थ के अधीन हो गई। भाव के साथ उनके जीवन-सिद्धान्त भी बदल गए। बुद्धि का उद्देश्य केवल तत्त्व-निरूपण और विद्या-प्रसार न रहा, वह धनोपार्जन का मंत्र बन गया। उस मकान में अब उन्हें कष्ट होने लगा। दूसरा मकान लिया, जिसमें बिजली के पंखे और रोशनी थी। इन नए साधनों से उन्हें लिखने-पढ़ने में और भी आसानी हो गई। बरसात में मच्छरों के मारे कोई मानसिक काम न कर सकते थे। गर्मी में तो नन्हें से आँगन में बैठना भी मुश्किल था, काम करने का जिक्र ही क्या? अब वह खुली हुई छत पर बीजली के सामने शाम ही से बैठकर काम करने लगे थे। अहिल्या खुद तो कुछ न लिखती; पर चक्रधर की सहायता करती रहती थी। लेखों को साफ़ करना, अन्य पुस्तकों और पत्रों से अबतरणों की नक़ल करना उसका काम था। पहले ऊसर की खेती करते थे, जहाँ न धन था, न कीर्ति। अब धन भी मिलता था और कीर्ति भी। पत्रों के सम्पादक उनके आग्रह करके लेख लिखवाते थे। लोग इन लेखों को बड़े चाव से पढ़ते थे। भाषा भी अलंकृत होती थी, भाव भी सुन्दर, विषय भी उपयुक्त! दर्शन से उन्हें विशेष रुचि थी। उनके लेख भी अधिकांश दार्शनिक होते थे।

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