|
उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
320 पाठक हैं |
||||||||
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
यशोदा०–महमूद भी डेपुटेशन में थे?
राधा–वही तो उसके कर्ता-धर्ता थे, भला वही क्यों न होते? हमारा तो विचार है कि वही फ़साद की जड़ हैं।
यशोदा०–अगर महमूद में सचमुच यह कायापलट हो गयी है, तो मैं यही कहूँगा कि धर्म से ज़्यादा द्वैष पैदा करनेवाली वस्तु संसार में नहीं। और कोई ऐसी शक्ति नहीं है, जो महमूद में द्वेष के भाव पैदा कर सके। चलो, पहले उन्हीं से बातें होंगी। मेरे द्वार पर तो इस वक़्त बड़ा ज़माव होगा।
राधा–जी हाँ, इधर आपके द्वार पर ज़माव है, उधर ख्वाज़ा के! बीच में थोड़ी-सी जगह खाली है।
तीनों आदमी ताँगे पर बैठकर चले। सड़कों पर पुलिस के जवान चक्कर लगा रहे थे। मुसाफ़िरों की छड़ियाँ छीन ली जाती थीं। दो-चार आदमी भी साथ न खड़े होने पाते थे। सिपाही तुरन्त ललकारता था। दूकानें सब बन्द थीं, कुँजड़े भी साग बेचते न नज़र आते थे। गलियों में लोग ज़मा होकर बातें कर रहे थे।
कुछ दूर तक तीनों आदमी मौन धारण किए बैठे रहे। चक्रधर शंकित होकर–इधर-उधर ताक रहे थे। ज़रा भी घोड़ा रूक जाता, तो उनका दिल धड़कने लगता कि किसी ने ताँगा रोक तो नहीं लिया; लेकिन यशोदानन्दन के मुख पर ग्लानि का गहरा चिह्न दिखाई दे रहा था। उनके मुहल्ले में आज तक कभी क़ुर्बानी नहीं हुई थी। हिन्दू और मुसलमान का भेद ही न मालूम होता था। उन्हें आश्चर्य होता था कि और शहरों में कैसे हिन्दू-मुसलमानों में झगड़े हो जाते हैं। और तीन ही दिन में यह नौबत आ गई!
सहसा उन्होंने उत्तेजित होकर कहा–राधामोहन, देखो, मैं तो यहीं उतरा जाता हूँ! ज़रा महमूद से मिलूँगा। तुम इन बाबू साहब को लेकर घर जाओ। आप मेरे एक मित्र के लड़के हैं, यहाँ सैर करने आये हैं, बैठक में आपकी चारपाई डलवा देना, और देखो, अगर दैवसंयोग से मैं लौटकर न आ सकूँ, तो घबराने की बात नहीं। जब लोग खून-खच्चर करने पर तुले हुए हैं, तो सब कुछ सम्भव है और मैं उन आदमियों में नहीं हूँ कि गौ की हत्या होते देखूँ और शान्त खड़ा रहूँ। अगर मैं लौटकर न आ सकूँ तो तुम घर में कहला देना कि अहिल्या का पाणिग्रहण आप ही के साथ कर दिया जाए।
वह कहकर उन्होंने कोचवान से ताँगा रोकने को कहा।
चक्रधर–मैं भी आपके साथ ही रहना चाहता हूँ।
यशोदा०–नहीं भैया, तुम मेरे मेहमान हो, तुम्हें मेरे साथ रहने की ज़रूरत नहीं। तुम चलो, मैं भी अभी आता हूँ।
|
|||||

i 










