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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
अहिल्या ने सामने आकर निस्संकोच भाव से कहा–मैं भी तो त्रिवेणी के स्नान में खो गई थी। आगरा की सेवा-समितिवालों ने मुझे कहीं रोते पाया, और मुझे आगरे ले गये। बाबू यशोदानन्दन ने मेरा पालन-पोषण किया।
राजा–तुम्हारी क्या उम्र होगी बेटी?
अहिल्या–चौबीसवाँ लगा है।
राजा–तुम्हें अपने घर की कुछ याद है? तुम्हारे द्वार पर किस चीज़ का पेड़ था?
अहिल्या–शायद बरगद का पेड़ था। मुझे याद आता है कि मैं उसके गोदे चुनकर खाया करती थी।
राजा–अच्छा, तुम्हारी माता कैसी थी? कुछ याद है?
अहिल्या–हाँ, याद क्यों नहीं आता! उनका साँवला रंग था, दुबली-पतली, लेकिन बहुत लम्बी थीं। दिन भर पान खाती रहती थीं।
राजा–घर में कौन-कौन लोग थे?
अहिल्या–मेरी एक बुढ़िया दादी थी, जो मुझे गोद में लेकर कहानी सुनाया करती थी। एक बूढ़ा नौकर था, जिसके कंधे पर रोज़ सवार हुआ करती थी। द्वार पर एक बड़ा-सा घोड़ा बँधा रहता था। मेरे द्वार पर एक कुआँ था और पिछवा़ड़े एक बुढ़िया चमारिन का मकान था।
राजा ने सजल नेत्र होकर कहा–बस बस, बेटी, आ तुझे छाती से लगा लूँ। तू ही मेरी सुखदा है। मैं बालक को देखते ही ताड़ गया था। मेरी सुखदा मिल गई! मेरी सुखदा मिल गई।
चक्रधर–अभी शोर न कीजिए। सम्भव है आपको भ्रम हो रहा हो।
राजा–ज़रा भी नहीं, जौ भर नहीं; मेरी सुखदा यही है। इसने जितनी बातें बतायीं, सभी ठीक हैं। मुझे लेश मात्र भी संदेह नहीं। आह! आज तेरी माता होती तो उसे कितना आनन्द होता! क्या लीला है भगवान् की! मेरी सुखदा घर बैठे मेरी गोद में आ गई। ज़रा-सी गयी थी, बड़ी-सी आयी। अरे! मेरा शोक-संताप हरने को एक नन्हा-मुन्ना बालक भी लायी। आओ, भैया चक्रधर, तुम्हें छाती से लगा लूँ। अब तक तुम मेरे मित्र थे, अब मेरे पुत्र हो। याद है, मैंने तुम्हें जेल भिजवाया था? नोरा, ईश्वर की लीला देखी? सुखदा घर में थी, और मैं उसके नाम को रो बैठा था। अब मेरी अभिलाषा पूरी हो गई। जिस बात की आशा तक मिट गई थी, वह आज पूरी हो गई।
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