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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


किसान वहीं खड़ा हो गया और बोला–सिपाही क्यों घुड़कियाँ ज़माएगा, कोई चोर हैं? हमारी खुशी, नहीं जाते। आपको जो करना हो, कर लीजिएगा।

चक्रधर से जब्त न हो सका। छड़ी हाथ में थी ही, वह बाज़ की तरह किसान पर टूट पड़े और एक धक्का देकर कहा–चलता है या ज़माऊँ दो-चार हाथ? तुम लात के आदमी बात से क्यों मानने लगे?

चक्रधर कसरती आदमी थे। किसान धक्का खाकर गिर पड़ा। यों वह भी करारा आदमी था। उलझ पड़ता, तो चक्रधर आसानी से उसे न गिरा सकते; पर वह रोब में आ गया। सोचा, कोई हाकिम है, नहीं तो उसकी हिम्मत न पड़ती कि हाथ उठाए। सँभलकर उठने लगा। चक्रधर ने समझा, शायद उठकर मुझे पर वार करेगा। लपककर फिर एक धक्का दिया। सहसा सामने वाले घर से एक आदमी लालटेन लिए बाहर निकल आया और चक्रधर को देखकर बोला–अरे भगतजी, तुमने यह भेष कब से धारण किया? मुझे पहचानते हो? हम भी तुम्हारे साथ जेल में थे।

चक्रधर उसे तुरंत पहचान गया। यह उनका जेल का साथी धन्नासिंह था। चक्रधर का सारा क्रोध हवा हो गया। लज़ाते हुए बोले–क्या तुम्हारा घर इसी गाँव में है, धन्ना?

धन्नासिंह–हाँ साहब, यह आदमी, जिसे आप ठोकरें मार रहे हैं, मेरा सगा भाई है। खा रहा था। खाना छोड़कर जब तक ऊठूँ, तब तक तो तुम गरमा ही गए। तुम्हारा मिज़ाज़ इतना कड़ा कब से हो गया? जेल में तो तुम दया और धरम के देवता बने हुए थे। क्या दिखावा-ही-दिखावा था? निकला तो कुछ और ही सोचकर, मगर तुम अपने पुराने साथी निकले। कहाँ तो दारोग़ा को बचाने के लिए अपनी छाती पर संगीन रोक ली थी, कहाँ आज ज़रा-सी बात पर इतने तेज़ पड़ गए।

चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। मुँह से बात न निकली। वह अपनी सफाई में एक शब्द भी न बोल सके। उनके जीवन की सारी कमाई, जो उन्होंने न जाने कौन-कौन कष्ट सहकर बटोरी थी, यहाँ लुट गई। उनके मन की सारी सद्वृत्तियाँ आहत होकर तड़पने लगीं। एक ओर उनकी न्याय-बुद्धि मंदित होकर किसी अनाथ बालक की भाँति दामन से मुँह छिपाए रो रही थी, दूसरी लज्जा किसी पिशाचिनी की भाँति उन पर आग्नेय बाणों का प्राहर कर रही थी।

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