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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
धन्नासिंह ने अपने भाई का हाथ पकड़कर बैठाना चाहा, तो वह ज़ोर से ‘हाय! हाय! ’ करके चिल्ला उठा, दूसरी बार गिरते समय उसका दाहिना हाथ उखड़ गया था धन्नासिंह ने समझा उसका हाथ टूट गया है। चक्रधर के प्रति उसकी रही सही भक्ति भी ग़ायब हो गई। उनकी ओर आरक्त नेत्रों से देखकर बोला–सरकार आपने तो इसका हाथ ही तोड़ दिया। (ओठ चबाकर) क्या कहें, अपने द्वार पर आए हो और कुछ पुरानी बातों का ख़याल है, नहीं तो इस समय क्रोध तो ऐसा आ रहा है कि इसी तरह तुम्हारे हाथ भी तोड़ दूँ। यह तुम इतने कैसे बदल गए! अगर आँखों से न देखता होता तो मुझे कभी विश्वास न आता। ज़रूर तुम्हें कोई ओहदा या ज़ायदाद मिल गई, मगर यह न समझो कि हम अनाथ हैं। अभी जाकर महाराज के द्वार पर फ़रियाद करें, तो तुम खड़े-खड़े बँध जाओ! बाबू चक्रधरसिंह का नाम तो तुमने सुना ही होगा? अब किसी सरकारी आदमी की मज़ाल नहीं कि बेगार ले सके, तुम बेचारे किस गिनती में हो? ओहदा पाकर अपने दिन न भूल जाने चाहिए। तुम्हें मैंने अपना गुरु और देवता समझा था। तुम्हारे ही उपदेश से मेरी पुरानी आदतें छूट गईं। गाँजा और चरस तभी से छोड़ दिया, जुए के नगीच नहीं जाता। जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोड़ डाले होंगे, अब वह टूटी हुई पड़ी है। मुझे तो तुमने यह उपदेश दिया और आप लगे ग़रीबों को कुचलने। मन्नासिंह ने इतना ही न कहा था कि रात को यहीं ठहर जाओ, सबेरे हम चलकर तुम्हारी मोटर पहुँचा देंगे। इसमें क्या बुराई थी? अगर मैं उसकी जगह होता, तो कह देता कि तुम्हारा गुलाम नहीं हूँ, जैसे चाहो अपनी मोटर ले जाओ, मुझे मतलब नहीं। मगर उसने तो तुम्हारे साथ भलमनसी की और तुम उसे मारने लगे। अब बताओ, इसके हाथ की क्या दवा की जाए? सच है, पद पाकर सबको मद हो जाता है।
चक्रधर ने ग्लानि वेदना से व्यथित स्वर में कहा–धन्नासिंह, मैं बहुत लज्जित हूँ, मुझे क्षमा करे। जो दंड चाहो दो; सिर झुकाए हुए हूँ, ज़रा भी सिर न हटाऊँगा, एक शब्द भी मुँह से न निकालूँगा।
यह कहते-कहते उनका गला फँस गया। धन्नासिंह भी गद्गद् हो गया। बोला–अरे भगतजी, ऐसी बातें न कहो। तुम मेरे गुरु हो, तुम्हें मैं अपना देवता समझता हूँ। क्रोध में आदमी के मुँह से दो-चार कड़ी बातें निकल ही जाती हैं, उनका ख़याल न करें। भैया, भाई का नाता बड़ा गहरा होता है। भाई चाहे अपना शत्रु हो; लेकिन कौन आदमी है, जो भाई को मार खाते देखकर क्रोध को रोक सके? मुझे अपना वैसा ही दास समझो, जैसे जेहल में समझते थे। तुम्हारी मोटर कहाँ है? चलो, मैं उसे उठाए देता हूँ; या हुक्म हो तो गाड़ी जोत लूँ?
चक्रधर ने रोकर कहा–जब तक इसका हाथ अच्छा न हो जाएगा, तब तक मैं कहीं न जाऊँगा, धन्नासिंह! हाँ, कोई आदमी ऐसा मिले, जो यहाँ से जगदीशपुर जा सके, तो उसे मेरी एक चिट्ठी दे दो।
धन्नासिंह–जगदीशपुर में तुम्हारा कौन है भैया? क्या रियासत में नौकर हो गए हो?
चक्रधर–नौकर नहीं हूँ, मैं मुंशी वज्रधर का लड़का हूँ।
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