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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


यशोदा०–हम इन ज़ालिमों से गौ को छीन लेंगे।

चक्रधर–अहिंसा का नियम गौओं ही के लिए नहीं, मनुष्यों के लिए भी तो है।

यशोदा०–कैसी बात करते हो, जी! क्या यहाँ खडे होकर अपनी आँखों से गौ की हत्या होते देखें?

चक्रधर–अगर आप एक बार दिल थामकर देख लेंगे, तो यक़ीन है कि फिर आपको कभी यह दृश्य न देखना पड़े।

यशोदा०–हम इतने उदार नहीं हैं।

चक्रधर–ऐसे अवसर पर भी?

यशोदा०–हम महान्-से-महान् उद्देश्य के लिए भी यह मूल्य नहीं दे सकते? इन दामों स्वर्ग भी महँगा है।

चक्रधर–मित्रो, ज़रा विचार से काम लो।

कई आवाज़ें–विचार से काम लेना कायरों का काम हैं।

एक सिक्ख जवान–जब डण्डे से काम लेने का मौक़ा आये, तो विचार को बन्द करके रख देना चाहिए।

चक्रधर–तो फिर जाइए, लेकिन उस गौ को बचाने के लिए आपको अपने एक भाई का खून करना पड़ेगा।

सहसा एक पत्थर किसी की तरफ़ से आकर चक्रधर के सिर में लगा। खून की धारा बह निकली, चक्रधर अपनी जगह से हिले नहीं। सिर थामकर बोले–अगर मेरे रक्त से आपकी क्रोधाग्नि शान्त होती हो, तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है। अगर मेरा खून और कई जानों की रक्षा कर सके, तो इससे उत्तम कौन मृत्यु होगी?

फिर दूसरा पत्थर आया; पर अबकी चक्रधर को चोट न लगी। पत्थर कानों के पास से निकल गया।

यशोदानन्दन गरजकर बोले–यह कौन पत्थर फेंक रहा है? सामने क्यों नहीं आता? क्या वह समझता है कि उसी ने गौ-रक्षा का ठेका ले लिया है? अगर वह बड़ा वीर है, तो क्यों नहीं चन्द कदम आगे आकर अपनी वीरता दिखाता? पीछे खड़ा पत्थर क्यों फेंकता है।

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