उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
एक आवाज़–धर्मद्रोहियों को मारना अधर्म नहीं है।
यशोदानन्दन–जिसे तुम धर्म का द्रोही समझते हो, वह तुमसे कहीं सच्चा हिन्दू है।
एक आवाज़–सच्चे हिन्दू वही तो होते हैं, जो मौक़े पर बगलें झाँकने लगें और शहर छोड़कर दो-चार दिन के लिए खिसक जायें।
कई आदमी–यह कौन मन्त्री जी पर आक्षेप कर रहा है? कोई उसकी जुबान पकड़कर क्यों नहीं खींच लेता?
यशोदानन्दन–आप लोग सुन रहे हैं, मुझ पर कैसे-कैसे दोष लगाए जा रहे हैं। मैं सच्चा हिन्दू नहीं, मैं मौक़ा पड़ने पर बगलें झाँकता हूँ और जान बचाने के लिए शहर से भाग जाता हूँ। ऐसा आदमी आपका मन्त्री बनने के योग्य नहीं है। आप उस आदमी को अपना मन्त्री बनाएँ, जिसे आप सच्चा हिन्दू समझते हों। मैं धर्म से पहले अपने आत्मगौरव की रक्षा करना चाहता हूँ।
कई आदमी–महाशय, आपको ऐसे मुँहफट आदमियों की बात का ख़याल न करना चाहिए।
यशोदा०–यह मेरी पच्चीस वर्षों की सेवा का उपहार है! जिस सेवा का फल अपमान हो, उसे दूर ही से मेरा सलाम है।
यह कहते हुए मुंशी यशोदानन्दन घर की तरफ़ चले। कई आदमियों ने उन्हें रोकना चाहा, कई आदमी उनके पैरों पड़ने लगे, लेकिन उन्होंने एक न मानी। वह तेजस्वी आदमी थे। अपनी संस्था पर स्वेच्छाचारी राजाओं की भाँति शासन करना चाहते थे। आलोचनाओं को सहन करने की उनमें सामर्थ्य ही न थी।
उनके जाते ही यहाँ आपस में ‘तू-तू, मैं-मैं’ होने लगी। एक दूसरे पर आक्षेप करने लगा। गालियों की नौबत आ गयी, यहाँ तक कि-चार आदमियों से हाथापाई भी हो गई।
चक्रधर ने जब देखा कि इधर से अब कोई शंका नहीं है, तो वह लपककर मुसलमानों के सामने आ पहुँचे और उच्च स्वर में बोले–हज़रात, मैं कुछ अर्ज़ करने की इज़ाज़त चाहता हूँ।
एक आदमी–सुनो, सुनो, यही तो अभी हिन्दूओं के सामने खड़ा था।
दूसरा आदमी–दुश्मनों के कदम उखड़ गए। सब भागे जा रहे हैं।
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