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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
यात्रा की तैयारी करके और अपने मन को अच्छी तरह समझाकर चक्रधर ने संदेह को दूर करने के लिए अपने शयनागार में विश्राम किया। अहिल्या ने कहा–दादाजी तो राज़ी न हुए।
चक्रधर–न जाऊँगा, और क्या। उनको नाराज़ भी तो नहीं करना चाहता।
अहिल्या प्रसन्न होकर बोली–यही उचित भी है। सोचो, उन्हें कितना बड़ा दुःख होगा। मैंने तुम्हारे साथ जाने का निश्चय कर लिया था। शंखधर को भी अपने साथ ले ही जाती। फिर बेचारे किसका मुँह देखकर रहते?
चक्रधर ने इसका कुछ जवाब न दिया। वह चुप साध गए। नींद का बहाना करने लगे। वह चाहते थे कि यह सो जाए, तो मैं चुपके से अपना बकुचा उठाऊँ और लम्बा हो जाऊँ, मगर निद्रा-विलासिनी अहिल्या की आँखों से आज नींद कोसों दूर थी। वह कोई-न-कोई प्रसंग छेड़कर बातें करती जाती थी। यहाँ तक कि जब आधी रात से अधिक बीत गई तो चक्रधर ने कहा–भाई, अब मुझे सोने दो, आज तुम्हारी नींद कहाँ भाग गई?
उन्होंने चादर ओढ़ ली और मुँह फेर लिया गर्मी के दिन थे। कमरे में पंखा चल रहा था। फिर भी गर्मी मालूम होती थी। रोज़ किवाड़ खुले रहते थे। जब अहिल्या को विश्वास हो गया कि चक्रधर सो गये, तो उसने दरवाजा अन्दर से बंद कर दिये और बिजली की बत्ती ठंडी करके सोयी। आज वह न जाने क्यों इतनी सावधान हो गयी थी। पगली! जानेवालों को किसने रोका है?
रात भीग ही चुकी थी। अहिल्या को नींद आते आते देर न लगी। चक्रधर का प्रेमकातर हृदय अहिल्या के यों सावधान होने पर एक बार विचलित हो उठा। वह अपने आँसुओं के वेग को न रोक सके। यह सोचकर उनका कलेजा फटा जाता था कि जब प्रातःकाल यह मुझे न पायेगी, तो इसकी क्या दशा होगी। इधर कुछ दिनों अहिल्या को विलास-प्रमोद में मग्न देखकर चक्रधर समझने लगे थे कि इसका प्रेम अब शिथिल हो गया है। यहाँ तक कि वह शंखधर को भी गोद में उठाकर प्यार न करती थी, पर आज उसकी व्यग्रता देखकर उनका भ्रम जाता रहा, उन्हें ज्ञात हुआ कि इसका विलासी हृदय अब भी प्रेम में रत है! जब कोई वस्तु हमारे हाथ से जाने लगती है, तभी उसके प्रति हमारे सच्चे मनोभाव प्रकट होते हैं। निःशंक दशा में सबसे प्यारी वस्तुओं की भी हमें सुध नहीं रहती, हम उनकी ओर से उदासीन रसे रहते हैं।
चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था। सारा राजभवन शांति में विलीन हो रहा था। चक्रधर ने उठकर द्वारों को टटोलना शुरू किया, पर ऐसा दिशा-भ्रम हो गया था कि कभी सपाट दीवार हाथ में आती, कभी कोई खिड़की कभी कोई मेज। याद करने की चेष्टा करते थे कि मैं किस तरफ़ मुँह करके सोया था। द्वार ठीक चारपाई के सामने था, पर बुद्धि कुछ काम न देती थी। उन्होंने एक क्षण शांत चित्त होकर विचार किया, पर द्वार का ज्ञान फिर भी न हुआ। यहाँ तक कि अपनी चारपाई भी न मिलती थी। आख़िर उन्होंने दीवारों को टटोल-टटोलकर बिजली का बटन खोल निकाला और बत्ती जला दी। देखा, अहिल्या सुखनिद्रा में मग्न है! कया छवि थी, मानों उज्जवल पुष्प राशि पर कमल दल बिखरे पड़े हों, मानों हृदय में प्रेमस्मृति विश्राम कर रही हो।
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