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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर के मन में एक बार यह आवेश उठा कि अहिल्या को जगा दें और उसे गले लगाकर कहे–प्रिये! मुझे प्रसन्न मन से बिदा करो, मैं बहुत जल्द-जल्द आया करूँगा इस तरह चोरों की भाँति जाते हुए उन्हें असीम मर्मवेदना हो रही थी किन्तु जिस भाँति किसी बूढे़ आदमी को फिसलकर गिरते देख, हम अपनी हँसी के वेग को रोकते हैं, उसी भाँति उन्होंने मन की इस दुर्बलता को दबा दिया और आहिस्ता से किवाड़ खोला। मगर, प्रकृति को गुप्त व्यापार से कुछ बैर है। किबाड़ को उन्होंने कुछ रिश्वत तो दी नहीं थी, जो वह अपनी जबान बन्द करता! खुला, पर प्रतिरोध की एक दबी हुई ध्वनि के साथ। अहिल्या सोयी थी, पर उसे खटका लगा हुआ था। यह आहट पाते ही उसकी संचित निद्रा टूट गयी। वह चौंककर उठ बैठी और चक्रधर को पास की चारपाई पर न पाकर घबरायी हुई कमरे के बाहर निकल आयी। देखा तो चक्रधर दबे पाँव उस जीने पर चढ़ रहे थे, जो रानी मनोरमा के शयनागार को जाता था।

उसने घबरायी हुई आवाज में पुकारा–कहाँ भागे जाते हो?

चक्रधर कमरे से निकले, तो उनके मन में बदवती इच्छा हुई कि शंखधर को देखते चले, इस इच्छा को वह संवरण न कर सके। वह तेजस्वी बालक मानों उनका रास्ता रोककर खड़ा हो गया हो। वह ऊपर कमरे में रानी मनोरमा के पास सोया हुआ था। इसीलिए चक्रधर ऊपर जा रहे थे कि आँख भरके देख लूँ। यह बात उनके ध्यान में न आयी कि रानी को इस वक़्त कैसे जगाऊँगा। शायद वह बरामदे ही में खड़े खिड़की से उसे देखना चाहते हों। इच्छा वेगवती होकर विचार-शून्य हो जाती है। सहसा अहिल्या की आवाज़ सुनकर वह स्तभ्मित से हो गये। ऊपर न जाकर नीचे उतर आये और अत्यन्त सरल भाव से बोले–क्या तुम्हारी भी नींद खुल गई?

अहिल्या–मैं सोयी कब थी! मैं जानती थी कि तुम आज जाओगे। तुम्हारा चेहरा कहे देता था, तुमने आज मुझे छलने का इरादा कर लिया है, मगर मैं कहे देती हूँ कि मैं तुम्हारा साथ न छोड़ूँगी। अपने शंखधर को भी साथ ले चलूँगी। मुझे राज्य की परवाह नहीं है। राज्य रहे या जाये। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते।
तुम इतने निर्दयी हो, यह मुझे मालूम न था। तुम तो छल करना न जानते थे। यह विद्या कब सीख ली? बोली–मुझे छोड़कर जाते हुए ज़रा भी दया नहीं आती?

चक्रधर ने लज्जित होकर कहा–तुम्हें मेरे साथ बहुत कष्ट होगा, अहिल्या! मुझे प्रसन्न चित्त हो जाने दो। ईश्वर ने चाहा तो जल्द ही लौटूँगा।

अहिल्या–क्यों प्राणेश, मैंने तुम्हारे साथ कौन-से कष्ट नहीं झेंले, और वह ऐसा कौन-सा कष्ट है, जो मैं झेल नहीं चुकी हूँ? अनाथिनी क्या पान-फूल से पूजी जाती है? मैं अनाथिनी थी, तुमने मेरा उद्धार किया। क्या वह बात भूल जाऊँगी? मैं विलास की चेरी नहीं हूँ। हाँ, यह सोचती थी कि ईश्वर ने जो सुख अनायास दिया है, उसे क्यों न भोगूँ? लेकिन नारी के लिए पुरुष-सेवा से बढ़कर और कोई श्रृंगार, कोई विलास, कोई भोग नहीं है।

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