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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
चक्रधर–और शंखधर?
अहिल्या–उसे भी ले चलूँगी।
चक्रधर–रानीजी उसे जाने देंगी? जानती हो, राजा साहब का क्या हाल होगा?
अहिल्या–यह सब तो तुम भी जानते हो। मुझ पर क्यों भार रखते हो?
चक्रधर–सारांश यह कि तुम मुझे न जाने दोगी!
अहिल्या–हाँ, मुझे छोड़कर तो तुम नहीं जा सकते, और न मैं ही लल्लू को छोड़ सकती हूँ। किसी को दुःख हो, तो हुआ करे।
इन बातों की कुछ भनक मनोरमा के कानों में भी पड़ी। वह भी अभी तक न सोयी थी। उसने दरबार से ताक़ीद कर दी थी कि रात को चक्रधर बाहर जाने लगें, तो मुझे इत्तला देना। वह अपने मन की दो-चार बात चक्रधर से कहना चाहती थी। यह बोलचाल सुनकर नीचे उतर आयी। अहिल्या के अंतिम शब्द उसके कानों में पड़ गये। उसने देखा कि चक्रधर बड़े हतबुद्धि से खड़े हैं, अपने कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सकते, कुछ जवाब भी नहीं दे सकते। उसे भय हुआ कि इस दुविधा में पड़कर कहीं वह अपने कर्तव्य मार्ग से हट न जायें, तो मेरा चित्त दुःखी न हो जाये, इस भय से वह विरक्त होकर कहीं बैठ न रहे। वह चक्रधर को आत्मोत्सर्ग की मूर्ति समझती थी। उसे निश्चय था कि चक्रधर इस राज्य की तृण बराबर भी परवाह नहीं करते, उन्हें तो सेवा की धुन लगी हुई है, यहाँ रहकर अपने ऊपर बड़ा जब्र कर रहे हैं। वह यह भी जानती थी कि चक्रधर किसी तरह रुकनेवाले नहीं; अब यह दशा उनके लिए असह्य हो गयी है। तो क्या वह शंखधर के मोह में पड़कर उनकी स्वतंत्रता में बाधक होगी? अपनी पुत्र-तृष्णा को तृप्त करने के लिए उनके पैर में बेड़ी बनेगी? नहीं, वह इतनी स्वार्थिनी नहीं है। जिस बालक से उसे नाम का नाता होने पर इतना प्रेम है, उसे वह कितना चाहते होंगे, इसका वह भली भाँति अनुमान कर सकती थी। वह शंखधर के लिए रोयेगी, तड़पेगी, लेकिन अपने पास रखकर चक्रधर को पुत्र-वियोग का दुःख न देगी। यह उनके दीपक से अपना घर उजाला न करेगी। यही उसने स्थिर किया। राजा साहब का क्या हाल होगा, इसकी उसे याद ही न रही। आकर बोली–बाबूजी, आप मेरा ख़याल न कीजिए, शंखधर को ले जाइए। आखिर आपका दिल वहाँ कैसे लगेगा? मेरा क्या, जैसे पहले रहती थी, वैसे ही फिर रहने लगूँगी। हाँ, इतनी दया कीजिए कभी-कभी उसे लाकर मुझे दिखा दिया कीजिएगा, मगर अभी दो-चार दिन रहिएगा! बेटियाँ क्या यों रातों-रात विदा हुआ करती हैं? दो-चार दिन तो शंखधर को प्यार कर लेने दीजिए।
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