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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


दीवान साहब की पाचन-शक्ति अच्छी हो गई हो, पर विचार-शक्ति तो ज़रूर क्षीण हो गई थी। निश्चय करने की अब उनमें सामर्थ्य ही न थी। ऐसी-ऐसी ग़लतियाँ करते थे कि राजा साहब को उनका बहुत लिहाज़ करने पर भी बार-बार एतराज़ करना पड़ता था। वह कार्य-दक्षता, वह तप्परता, वह विचारशीलता, जिसने उन्हें चपरासी से दीवान बनाया था, अब उनका साथ छोड़ गई थी। वह बुद्घि भला जगदीशपुर का शासन-भार क्या सँभालती? लोगों को आश्चर्य होता था कि उन्हें क्या हो गया है! गुरुसेवक को भी शायद मालूम होने लगा कि पिताजी की आड़ में कोई दूसरी ही शक्ति रियासत का संचालन करती थी।

एक दिन उन्होंने पिता से कहा–लौंगी कब तक आयेंगी?

दीवान साहब ने उदासीनता से कहा–उसका दिल जाने? यहाँ आने की तो कोई खास ज़रूरत नहीं मालूम होती। अच्छा है, अपने कर्मों का प्रायश्चित ही कर ले। यहाँ आकर क्या करेगी?

उसी दिन भाई-बहिन में भी इसी विषय पर बातें हुईं। मनोरमा ने कहा–भैया, क्या तुमने लौंगी अम्माँ को भुला ही दिया? दादाजी की दशा देख रहे हो कि नहीं? सूखकर काँटा हो गये हैं।

गुरुसेवक–भोजन तो करते ही नहीं। कोई क्या करे? बस, जब देखो, शराब-शराब।

मनोरमा–उन्हें लौंगी अम्माँ ही कुछ ठीक रख सकती हैं। उन्हीं को किसी तरह बुलाओ और बहुत जल्द! दादाजी की दशा देखकर मुझे तो भय हो रहा है। राजा साहब तो कहते हैं, तुम्हारे पिताजी सठिया गये हैं।

गुरुसेवक–तो मैं क्या करूँ? बार-बार कहता हूँ कि बुला लीजिए, पर वह सुनते ही नहीं! वह एक हठिन है। भला, इस तरह क्यों आने लगीं?

मनोरमा–नहीं भैया, वह लाख हठिन हो; पर दादाजी पर जान देती हैं। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही हैं। तीर्थ-यात्रा में उसकी श्रद्धा कभी न थी। वहाँ रो-रोकर उसके दिन कट रहे होंगे। पिताजी जितना ही उसे आने के लिए रोकते हैं, उतना ही उसे आने की इच्छा होती है, पर तुमसे डरती है।

गुरुसेवक–नोरा, मैं सच कहता हूँ, मैं दिल से चाहता हूँ कि वह आ जाए, पर सोचता हूँ कि जब पिताजी मना करते हैं, तो मेरे बुलाने से क्यों आने लगी। रुपये-पैसों की कोई तक़लीफ़ है ही नहीं।

मनोरमा–तुम समझते हो, दादाजी उसे मना करते हैं? उनकी दशा देखकर भी ऐसा कहते हो! जब से अम्माँ का स्वर्गवास हुआ, दादाजी ने अपने को उनके हाथों बेच दिया। लौंगी ने न सँभाला होता, तो अम्माँजी के शोक में दादाजी प्राण दे देते। मैंने किसी विवाहित स्त्री में इतनी पति-भक्ति नहीं देखी। अगर दादाजी को बचाना चाहते हो, तो जाकर लौंगी अम्माँ को अपने साथ लाओ!

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