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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
गुरुसेवक–मेरा जाना तो बहुत मुश्किल है, नोरा!
मनोरमा–क्यों? क्या इसमें आपका अपमान होगा?
गुरुसेवक–क्यों? वह समझेगी, आख़िर इन्हीं की गरज़ पड़ी। आकर और भी सिर चढ़ जायगी। उसका मिज़ाज़ आसमान पर जा पहुँचेगा।
मनोरमा–भैया, ऐसी बातें मुँह से न निकालो। लौंगी देवी हैं, उसने तुम्हारा और मेरा पालन किया है। उस पर तुम्हारा यह भाव देखकर मुझे दुःख होता है।
गुरुसेवक–मैं अब उससे कभी न बोलूँगा, उसकी किसी बात में भूलकर भी दखल न दूँगा, लेकिन उसे बुलाने न जाऊँगा।
मनोरमा–अच्छी बात है, तुम न जाओ, लेकिन मेरे जाने में तो तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है?
गुरुसेवक–तुम जाओगी?
मनोरमा–क्यों, मैं क्या हूँ! क्या मैं भूल गयी हूँ कि लौंगी अम्माँ ही ने मुझे गोद में लेकर पाला है? अगर वह इस घर में आकर रहती, मैं अपने हाथों से उनके पैर धोती और चरणामृत आँखों से लगाती। जब मैं बीमार पड़ी थी; तो वह रात-की-रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थीं। क्या मैं इन बातों को कभी भूल सकती हूँ? माता के ऋण से उऋण होना सम्भव हो, उसके ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती, चाहे ऐसे-ऐसे दस जन्म लूँ। आजकल वह कहाँ हैं?
गुरुसेवक लज्जित हुए। घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ़ ओढ़े पड़े हुए हैं। पूछा–आपका जी कैसा है?
दीवान साहब की लाल आँखें चढ़ी हुई थीं। बोले–कुछ नहीं जी, ज़रा सर्दी लग रही थी।
गुरुसेवक–आपकी इच्छा हो, तो मैं जाकर लौंगी को बुला लाऊँ?
हरिसेवक–तुम! नहीं; तुम उसे बुलाने क्या जाओगे। कोई ज़रूरत नहीं। उसका जी चाहे आये या न आये। हुँह! उसे बुलाने जाओगे! ऐसी कहाँ की अमीरज़ादी है?
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