उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
तीसरा आदमी–इसी ने शायद उन्हें समझा-बुझाकर हटा दिया है। देखो, क्या कहता है?
चक्रधर–अगर इस गाय की क़ुर्बानी करना आप अपना मज़हबी फ़र्ज़ समझते हों, तो शौक़ से कीजिए। मैं आपके मज़हबी मामले में दखल नहीं दे रहा हूँ। लेकिन क्या यह लाज़मी है कि इसी जगह क़ुर्बानी की जाए?
एक आदमी–हमारी खुशी है, जहाँ चाहेंगे, क़ुर्बानी करेंगे, तुमसे मतलब?
चक्रधर–बेशक, मुझे बोलने का हक़ नहीं है लेकिन इस्लाम की जो इज़्ज़त मेरे दिल में है, वह मुझे बोलने के लिए मज़बूर कर रही है। इस्लाम ने कभी दूसरे मज़हबवालों की दिलजारी नहीं की। उसने हमेशा दूसरों के जज़बात का एहतराम किया है। बग़दाद और रोम, स्पेन और मिस्त्र की तारीख़ें उस मज़हबी आज़ादी की शाहिद हैं, जो इस्लाम ने उन्हें अदा की थीं। अगर आप हिन्दू जज़बात का लिहाज़ करके किसी दूसरी जगह क़ुर्बानी करें, तो यक़ीनन इस्लाम के वकार में फ़र्क़ न आएगा।
एक मौलवी ने ज़ोर देकर कहा–ऐसी मीठी-मीठी बातें हमने बहुत सुनी हैं। क़ुर्बानी यहीं होगी। जब दूसरे हमारे ऊपर ज़ब्र करते हैं, तो हम उनके जज़बात का क्यों लिहाज़ करें?
ख्वाज़ा महमूद बड़े गौर से चक्रधर की बातें सुन रहे थे। मौलवी साहब की उद्दण्डता पर चिढ़कर बोले–क्या शरीयत का हुक्म है क़ुर्बानी यहीं हो? किसी दूसरी जगह नहीं की जा सकती?
मौलवी साहब ने ख्वाज़ा महमूद की तरफ़ अविश्वास की दृष्टि से देखकर कहा–मज़हब के मामले में उलमा के सिवा और किसी को दखल देने का मजाज़ नहीं है।
ख्वाज़ा–बुरा न मानिएगा, मौलवी साहब! अगर दस सिपाही यहाँ आकर खड़े हो जाएँ, तो बगलें झाँकने लगिएगा!
मौलवी–किसकी मज़ाल है कि हमारे दीनी उमूर में मज़ाहमत करे?
ख्वाज़ा–आपको तो अपने हलवे-माँडे से काम है, जिम्मेदारी तो हमारे ऊपर आएगी, दूकाने तो हमारी लुटेंगी, आपके पास फटे बोरिए और फूटे बधने के सिवा और क्या रखा है? जब वे लोग मसलहत देखकर किनारा कर गए, तो हमें भी अपनी ज़िद से बाज़ आ जाना चाहिए। क्या आप समझते हैं कि वे लोग आपसे डरकर भागे? हमारे दुगने आदमी अगर चढ़ आते, तो सँभलना मुश्किल हो जाता।
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